पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१८३

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अच पशुके चरवाहे रहे। काल्डिया देशमें भी प्रथम भावको प्रकाश करते थे। पौछे सुविधाके निमित्त गोपाल हो ज्योतिषका मर्म समझ थे। यदि ऐसा एक-एक वस्तुके आद्यक्षरसे वर्णमालाके वर्णको हुआ है, तो इस बातको भी स्वीकार करना पड़ेगा, सृष्टि हुई। कि राशि प्रभृतिका नाम उन्हीं सकल पशुपालकोंने इसमें कोई आगा-पोछा नहीं, कि अच् वर्ण और रखा था। उस समय पशुरक्षक सामान्य लोग थे; हल् वर्ण की सृष्टि एककालमें ही हुई थी। किन्तु राशि प्रभृतिका अच्छा नाम देख-भाल रख न सके। पहले इतने वर्ण न थे। मनुष्यके गलेका स्वर जितना इसी लिये जो सकल द्रव्य वह अष्टप्रहर देखते, हाथमें ही परिष्क त होने लगा, उतना ही विशुद्ध राग- लेकर घूमते और खाते थे, उन्हींके अनुसार उन्होंने रागिणीको तान, लय और स्वरसे सबने गान राशि प्रभृतिका नाम रखा। बारह राशिके नाम करना सौखा और नानावों की सृष्टि होने लगी। उन्होंने यह रखे हैं, मेष, वृष, मिथुन, कर्कट, सिंह, अच्के मध्यमें पहले आकार मात्र था ; क्योंकि कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन। इसका उच्चारण सहज और स्वाभाविक है। सम्पूर्ण वास्तवमें कोई राशि न तो भेड़ और न सांड़ रूपसे मुख खोल शब्द करनेसे हो आकार उच्चारित है और न सिंहकी तरह केश ही फुलाये है। होता है। पीछे क्रमशः मुखके अवकाशको आकाशके स्थान-स्थानमें कितने ही तारा पास-पास घटाते जानेसे अकार, इकार, उकार प्रभृति अन्य मिल-जैसे गये हैं। कितनी ही देरतक देखनेसे वह स्वरवर्ण निकलते हैं। फिर, मुखके किसी स्थानको एक वस्तुके रूपमें देख पड़ते हैं। कोई इसी सकल स्पर्श करनेसे हल्वर्ण उच्चारित होते हैं। वर्ण का नक्षत्र-पुञ्जको भालूसे तुलना करते, जो जौन वस्तु अच्छी उच्चारण-स्थान और प्रयत्न इसका प्रमाण है। तरह पहचानते, वह उसौके साथ तुलना करते हैं। उच्चारण-स्थान-अ, आ. आ३, क, ख, ग, घ, ङ, ह, उस कालके रखवाले जिन सकल वस्तुओंको भली और विसर्गका उच्चारणस्थान कण्ठ है। ( अकुहविसर्ज- भांति पहचानते थे, उन्हींको देख उन्होंने राशियोंका नौयानां कण्ठः ।) इ, ई, ई३, च, छ, ज, झ, ञ, और नाम रखा। किन्तु ज्योतिषकी मेष प्रभृति राशिका श तालुसे उच्चारित होते हैं । ( इचयशानां तालु । ) ऋ, ऋ, ठीक चित्र अङ्कित नहीं। ठीक चित्र दिखानेके ऋ३, ट, ठ, ड, ढ, ण, र और ष मू से निकलते हैं। लिये यदि कोई राशियोंके नामानुसार अविकल (ऋतुरषाणां मूर्धा ।)। ल, १३, त, थ, द, ध, न, ल छविको चित्रित कर दे, तो वह दूसरी बात है। और स दांतसे सम्बन्ध रखते हैं। (लुतुलसानां दन्ताः ।) उ, किन्तु अविकल चित्र बनानेकी प्रथा ही नहीं। राशिको ऊ, ३, प, फ, ब, भ और उपभानीय अर्थात् ४ प आकृतिका एक-एक प्रकारसे सङ्केत है। राशि देखो। औरफ ओष्ठके हैं। (उपूपभानीयानामोष्ठौ। ) ङ, ञ, यहूदी जैसे जल बतानेको लहर चित्रित कर ण, न और म स्व-स्व वर्ग भिन्न नासिकासे भी उच्चारित दिखाते और ज्योतिषको कुम्भराशिके स्थलमें भी हो जाते हैं । ( अमङणनानां नासिका च ।) ए और ऐका लहर बना रखते थे, वैसे ही इस देशमें भी, राशिका उच्चारण कण्ठ और तालुसे होता है। (एदै तोः कण्ठ तालु ! ) सङ्केत सिवा मेषवषादिवाले . संक्षिप्त आकारके ओ और औ कण्ठोष्ठसे निकलते हैं । (ोदीतो: कण्डौष्ठम् । ) और कुछ भी नहीं। पहले उनके जो चित्र थे, अब वकार दन्त और ओष्ठसे उच्चारित होता है। (वकारस्य उनमें अनेक परिवर्तन हो गये हैं, इसीसे हम उन्हें दन्तौष्ठम् ।) जिह्वामूलीय अर्थात् ८ क और खका पहचान नहीं सकते। इन्हीं सकल विषयोंकी उच्चारणस्थान जिह्वामूल है। (जिवामूलीयस्य जिह्वामूलम् । ) आलोचना करनेसे कितना हो विश्वास उत्पन्न होता अनुस्वार नासिकासे निकलता है। (नासिकाऽनुस्वारस्य । ) है, कि लिखनेका कौशल आविष्कृत होनेसे पहले .. प्रयब-इसके बाद प्रयत्नादि नाना प्रकार स्वरका भी इस देशके लोम भी चित्र भेज दूरके लोगोंसे मनके -प्रमाण मिलता है। यथा,-प्रयत्न दो प्रकारका -