पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अण्ड २४१ सेवन और इतर जातिवाले लोग अन्यान्य पक्षियोंका भी अण्डा खाते हैं। अण्डेको पकाकर, भूनकर या उसको कलिया बनाकर सब लोग खाया करते हैं। किन्तु शरीरके अधिक दुर्बल होनेसे कच्चा अण्डा खाना चाहिये। पावभर खालिस दूध, एक नये अण्डेका फूल और कुछ चीनी या शक्कर एकमें मिला रोज सवेरे खाये। जिन्हें कच्चेका नाम सुननेसे घृणा आये, वह इसका अपने सामने तय्यार किया जाना न देखें। भूना हुआ अण्डा खानेको इच्छा होनेपर कभी उसे खरा न करे; कारण, ऐसा करनेसे उसमें बदबू आने लगती और वह खानेमें फोका मालूम होता है। एक मट्टीके बरतनमें थोड़ा घी डालके उसे हलकी आंचपर चढ़ा दे। घी खूब गर्म हो जानेपर उसमें एक अण्डा तोड़ सब फूल और रस सावधानीसे डाले। कुछ गर्म होनेपर उसमें कालीमिर्चका चूर्ण और थोडासा नमक डाल उतार ले। यह देखने में ठीक मालपुआ-जैसा हो जाता है। युरोपीय जो अण्डा तोड़कर खाते हैं, वह इसीतरह तय्यार होता है। अण्डा तोड़ और उसका सफ़ेद और पीला भाग अलगकर कांटेसे मथना पड़ता है। इसके बाद दोनो भागोंको इकट्ठाकर और प्याज, लालमिर्च और नमक डालके गर्म घीपर छोड़ देनेसे वह फल आता है। एक ओर भली भांति भुन जानेसे उलटाकर नीचे उतार ले। इसतरह जो अण्डा तला जाता है, उसे श्रीमलेट ( omellete) कहते हैं। कितनी ही प्रकारको पीड़ाओंमें अण्डा काम आया करता है। ज्वरविकारमें पेशाब बन्द हो जानेसे हमारे कविराज या वैद्य काली मुर्गीका अण्डा सिन्दूरके साथ मिला नाभिके ऊपर लेप कराते हैं। किसी स्थानके जल जानेपर शीघ्र-शीघ्र उसमें अण्डे का फूल चुपड़ देनेसे फायदा होता है। क्षार द्रव्य अधिक खानेसे पेटके भीतर विषक्रिया उत्पन्न हो जाती है। पहले वमन कराके पीछे रोगीको अण्डका रस दूधके साथ खानेको दे। सुसमयमें यह उपाय कर सकनेसे पाकस्थलोको श्लेभिक पतली खालमें फिर जलन नहीं उठती। इन्दज ज्वरविकारके रोगको अवसन्न अवस्थामें नाड़ी क्षीण और क्षण- क्षणमें विलुप्त तथा बन्द हो जानेपर शराबके साथ मिलाकर अण्डा खिलानेसे रोगी सबल हो जाता और नाड़ी सुस्थिर और बलवती बनती है। डाकर व्यानारने अण्डा मिलानको इसतरह व्यवस्था बताई है,-तीन नये अण्डोंका फूल और लार आधपाव साफ पानी में मिलाये। इसके बाद उसमें आधपाव अच्छी ब्राण्डी, (शराब) थोडीसी चीनी और जायफलचूर्ण डाल दे। यह औषधि सवा तोले मात्रामें चार-चार घण्टे बाद रोगोको कराये। अण्डा बहुत ही पुष्टिकर खाद्य है। खाकर इसे पचा सकनेस शरीरमें असुरकासा बल हो जाता है। इसके समस्त सारपदार्थ देहके विधानोपादानमें परिणत हो जानेसे इतना बल बढ़ता है, कि आध- सेर पके अण्डे से सोलह हजार चार सौ मन बोझ एक हाथ ऊंचा उठा लेनेका पराक्रम आ जाता है। किन्तु हम जो चीज खाते हैं, उनकी सब शक्तियां काम नहीं आती। वह कुछ पकतों और कुछ नहीं पकती हैं। फिर जो पकती हैं, उनका भी अधिकांश दैहिक विधानोपादानको क्षति पूरी करनेमें खर्च हो जाता है। समझकर देखनेसे अण्डा हो प्रायः सब जीवित पदार्थो के उत्पन्न होनेकी पहली अवस्था है। वृक्षका वीज भी सिवा एक प्रकार अण्डके और कुछ भी नहीं। अण्डेका फूल ही जीव है, वीजका अङ्गुर भी इसीतरह उद्भिद्का जीवन है। अण्डेका फूल सफेद रस खाके जीता और बढ़ता है। इसलिये अण्डे और वीजमें अधिक कोई प्रभेद नहीं। अङ्गुर देखो। शास्त्रकारोंने इस ब्रह्माण्डसृष्टिको पहली अवस्थामें भी एक अण्डोत्पत्तिको कल्पना की थी। मनुसंहितामें लिखा है, "मोऽभिध्याय शरीरात् खात् सिमक्षुर्विविधा: प्रजाः । अप एव ससर्जादौ तास वीजमवासृजत् ॥१।८। तदण्डमभवमं सहस्रांशुसमप्रभ । तस्मिन् जज्ञे खयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः ॥ १॥९॥