पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३३८

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अदिमग ३३२ मनुष्य खाते थे। जो कुछ जानती न थी। राक्षसने विचारा, कि मनुष्य उनके पास द्रव्यसामग्री लेने आते, इसौसे पहाड़पर मांस खाते देख वह कहीं डर न जातो; इसीसे एक भी अन्तमें विशूचिका और वसन्त रोग फैल पड़ते जगह छावनी डाल स्वोसे कहा,-'तुम इस डेरेमें हैं। पहाड़ी आरबाको माला गले में पहनते हैं। रहो, मैं दो-एक अनुचर साथ ले शिकार करके इन्हें विश्वास है, कि यह माला गलेमें पहननेमे वापस आता हूं।' राक्षस इसीतरह प्रत्यह शिकार शरीर नौरोग रहता है। दैवात् पौड़ा होनेसे इनका करने जा वनमें अनुचरोंको मार खाता था। दूसरा कोई औषध नहीं ; किसी भी रोग-शोकमें कन्याके कोई बात पूछनेसे वह कहता,-'वन्य पशु पहाड़ी सांपका पित्त और विष्ठा खाते हैं। किन्तु ओंने उन्हें मार डाला है।' राक्षसने दो-एक करके ठीक बात विचारनेसे रोग-शोक केवल वनदेवताके सबको खा डाला था ; अन्तमें एक भृत्य बाको बचा। कोपपर हो संघटित होते हैं। उन्हें कुछ संतुष्ट रख वह उसे भो साथ ले शिकार करने रवाना हुआ। सकनेसे अमङ्गलका भय नहीं रहता। इसीसे परि- राजकन्या चुपके साथ-साथ जा सब काम अपनी वारमें किसीको पीड़ा होनेपर पहाड़ी पहले वन- आंखों देख आई। किन्तु ईश्वरको कपासे उसके प्राण देवताको पूजा करते हैं। किन्तु महामारी दूर बच गये। करनेकी रीति निराली है। यह-स्त्री, पुरुष, इस कहानोसे भी अच्छी तरह समझ पड़ता है, बालक, बालिका-सब मिलकर नाचते-गाते हैं। कि पहले आराकान प्रभृति स्थानोंके असभ्य लोग ताज़ी-ताजी रूईका धागा तोड़ उसमें गांवका फेरा लगा गांठ देते हैं। पल्लोवासौ देवताके सामने मुर्गी- तुङ्गथाओंके प्रत्येक ग्राममें एक सरदार रहता सूअरको वलि चढ़ा रक्त उसी धागेमें लगाते हैं। है। राजाका मान-सम्भ्रम अधिक कुछ भी नहीं ; रहिणी घर-बाहर झाड़-पोंछ और लोप-पोत हार- प्रजा उन्हें केवल एक गांठ शस्य और एक घड़ा सड़ी हारमें नवीन पल्लव-पत्रके वन्दनवार बांध देती हैं। शराब देतो, यही उनका राजख है। मानका दूसरा ऐसे समय एक गांवसे दूसरे गांव कोई जाने नहीं भी एक काम है। युद्ध होनेसे सरदारको लूटका पाता दैवात् बलपूर्वक किसोके ग्राममें प्रवेश अधिक अंश देना पड़ता है। प्रजाको इच्छा होनेसे करनेको आनेपर तुमुल युद्ध उपस्थित होता है। वह एक गांवसे दूसरे गांवमें जाकर रह सकते हैं। तुङ्गथा इस नियमको खाङ्ग कहते हैं। तीन दिनके इसौसे सरदार लोगोंमें आदर पाने के लिये सबसे अच्छा बाद खाङ्ग टूट जाता है। व्यवहार और सबको सुख में रखनेकी चेष्टा करते हैं। यह बात हम मानते, कि तुङ्गथा असभ्य हैं। किन्तु जो महावीर एवं असमसाहसी हैं, शत्रु आनेसे प्रतिज्ञाको पालन करनेमें ऐसी कोई भी दूसरी जाति युद्धमें पीठ नहीं दिखाते और विवाद मिटाते समय नहीं। एकबार मुंहसे जो निकलेगा, ब्रह्माण्ड पक्षपात नहीं करते, वही सरदार बननेके पात्र हैं। रसातलमें जानेपर भी वह अन्यथा न जायेगा। शपथ तुङ्गथा उन्होंको प्रधान समझते हैं उठाते समय यह शस्य, कार्पास, जल प्रभृति द्रव्य छूके तुङ्गथाओंके पहाड़में अधिक पीडादि नहीं; प्रतिज्ञा करते हैं, मङ्गाजल, तुलसीपत्र कुछ नहीं यहां प्रायः अस्मी-नब्बे वर्षके बुड़े लोग देख पड़ते हैं। समझते। नित्य जो आवश्यक पड़ते और जिनके कदाचित् संक्रामक विशूचिका और वसन्त रोग उप न होनेसे प्राण नहीं बचता, उन्हीं सकल द्रव्योंको स्थित हो जाते हैं, किन्तु नीचेवाले बङ्गलियोंके ही स्पर्शकर यह शपथ उठाते हैं। दोषसे। बङ्गालियों में संक्रामक रोग होते भी पहाड़ी तुझ्था अफीम, चांडू, गांजा, भांग कुछ नहीं खाते। नशेमें इन्हें शराब अच्छो लगती है। Captain P. H. Lewin's Wild Races of S. E. India. मद्यपान इनके नित्य अभ्यासमें आ गया है।

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