पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४२

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४० अकृतघ्न-अकृष्टपच्य टक् प्रत्यय द्वारा सिद्ध हुए हैं। लक्षणेजायापत्योष्टक । | अकृति, अकृती ( स० स्त्री० ) न-कृ-क्तिन् । * । क पा ३२।५२। लक्षणद्योतकमें जाया और पति कम्मोप श च। चात् तिन्। नास्ति कृति: सत्कार्यमस्र पदोंके बाद हन धातुके उत्तर टक् प्रत्यय होता है। निकम्मा। काम न करने योग्य । निकम्मा मनुष्य पतिघ्नी, जायाघ्न । पुनश्च ।। अमनुष्यकर्ट के च। पा जो किसी काम योग्य न हो। जिसका काम सः ३।२।५३। मनुष्यवाचि भिन्न कर्मोपपदके आगे (अर्थात् या ठीक न हो। (त्रि०) न-कृति-इन। अयोग्य । जिससे मनुष्यका बोध न हो) टक् प्रत्यय होता है। अकृतित्व (सं० लो०) न-क-तिन्-त्व। अयोग्यता यथा-पित्तघ्न, वातघ्न। इस स्थानमें मनुष्यका बोध नहीं अपटता। होता, किन्तु शत्रुघ्न, मित्रघ्न इत्यादि शब्दोंसे मनुष्य अकृत्य (सं० लो०) न-ही-क्यप् विभाष का बोध होता है, फिर यह शब्द किस प्रकारसे निष्पन्न कृषोः । पा ३२१११२०। क अथच वृष धातुके उत्तर हुए! भट्टोजिदीक्षित इस विषयमें शङ्का उठाकर विकल्पसे क्यप् प्रत्यय होता है। अकार्य। दुष्कम्म उसका समाधान करते हैं,-कथं बलभद्रः प्रलम्बघ्न अनुपयुक्त समयमें कार्यका विधान । जिस समय य शत्रुघ्न, कृतघ्न इत्यादि ? मूलविभुजादिवत् सिद्धम् । स्थानमें जो काम करना चाहिय, उसे छोड़ दूस प्रलम्बध, शत्रुघ, कृतघ्र इत्यादि शब्द कैसे सिद्ध अयोग्य समय या स्थानमें उमा कामका करना हुए ? मूलविभुजादि शब्दीकी भांति सिद्ध हुए यथा-अष्टमोम एकादशोका उपवाम । हैं। मूलविभुजादिका लक्षण यह है । * । क प्रकरण अकत्रिम (म त्रि०) न डुक्लञ्चति । काय ण निव- मूलविभुजादिभ्य उपसंख्यानम् (वात्तिक)। मूलविभुज, त्तम् कृत्रिमम् । अजन्यः। स्वाभाविक । काल्पनिक नहीं नखमुच, काकगृह, कुमुद, महौध्र, कुध्र, गिल इनका ।। द्वितः त्रिः । पा ३३८८। ।मम् नित्यम् । आकृतिगण है। पा ४।४।२०। गणपाठकालमं जो धातुएं डु मसृष्ट अकृतज्ञ (सं० त्रि०) न-कृत-ज्ञा-क। कृतघ्न। किये उप होती हैं, निष्पन्न समर्थमें उनके उत्तर क्ति प्रत्यय होता कारको जो न माने या स्मरण न रखे। नाशुकरा। है। धातुके उत्तर त्रि होनम नित्य ही मकारका आगम इहसानकुश। होता है। यथा-डू पचष् पार्कण निवृतं पक्तिमम् । अकृतज्ञता (सं० स्त्री०) उपकार न माननेका भाव । ( बोना) उत्रिम। कञ् कृत्रिम । बबनावटो। नाशुकरापन। प्राकृतिक। नैसर्गिक । मच्चा। वास्तविक । यथार्थ । अकृतव्रण (सपु०) कश्यपवंशीय एक मुनि। यह हार्दिक। आन्तरिक। यथा परशुरामके अनुचर थे। जिस समय युधिष्ठिरने लोमश अहाविम प्रम रामन जाना। ( बानमा ) मुनिके साथ महेन्द्राचलके दर्शन किये, उस समय अकृप (सं० त्रि०) नास्ति कृपा यम्य । निय। वहां अकृतव्रण उपस्थित थे। परशुरामने जिस कारण अकृपण (सं० त्रि०) कृपणताशून्य। जिसमें कृपणता न हो। और जिस प्रकारसे युद्ध में क्षत्रियोंको परास्त किया था, अकृपा (सं० स्त्री० ) कोप। क्रोध। अप्रसन्नता। ना- वह कथा इन्होंने युधिष्ठिरके सामने वर्णन की। राजी। नामिहरबानी। इनकी लिखी हुई एक संहिता थी। अकृशाश्व-प्रक्रताश देखी। अकृताभ्यागम (हिं० पु०) बिना किये हुए कनके अकृष्टपच्च (सं० वि० ) न-कृष्ट पच-क्यप । नञ् तत् । फलको प्राप्ति। न्याय या तर्कशास्त्रमें एक प्रकारका कृष्टे पच्यन्त कष्टपच्या: कम्मकतरि। शुद्धेतु कर्माणि । दोष। कृष्टपाक्याः । ततो नञ्तत् । स्वयमेव पच्यन्त इत्यर्थः । अकृतार्थ (स० वि०) जिसका अर्थ सिद्ध न हुआ हो। अकुम्ब देखो। जो बिना जोत-बोये उत्पन्न होकर पके। अकृताश्व-(सं० पु०) सूर्यकुलोद्भव संहताश्वका पुत्र । जैसे—साठी। घासका धान्य । धुनिया। अकृशाश्व। अकष्टपच्याः पश्यन्तो ततो दाशरथी लताः । (भट्टि)