पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४३३

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४२६ अनारुह्य -अनाव विशेष, लाल आंखका कबूतर। ४ मिष्टान्न विशेष, दश-बारह वर्षपर रजः निकलता है। कभी-कभी एक पकवान । यह एक तरहका तिकोना है, जिसमें किसीका बीस-बाईस वर्षमें भी ऋतु लगता है। मोठी या नमकीन चीज भरते हैं। किन्तु अनेकको जन्मावच्छिन्न ऋतु नहीं होता। अनारुह्य (स अव्य०) आरोहण न करके, विना चढ़े। ऐसी अवस्था में जन्मावधि जननेन्द्रियमें कोई न अनारोग्य (सं.ली.) न आरोग्यम्, नञ्तत् । कोई दोष रह सकता है। सम्भव है, कि अण्डाधार १ आरोग्यका प्रभाव, तन्दुरुस्तीका न रहना। (त्रि०) एकबारगी ही गुम हो गया हो। किसीका तो नितान्त नास्ति आरोग्यं यस्मात्, ५-बहुव्री । २ आरोगा न क्षुद्र अण्डाधार होता है और ग्राफियान भेसिकिलका रखनेवाला, पौड़ादायक ; जो तन्दुरुस्तीमें खलल (graafian vesicles) चिह्नमात्र भी नहीं रहता। डाले। दूसरे, अनेक स्त्रियोंके अण्डाधार और ग्राफ़ियान भेसि- अनार्जव (सं० पु०) ऋजोर्भावः आर्जवं सरलता किल दोनो होते हैं, किन्तु जरायु नितान्त क्षुद्र या स्वाच्छन्द्यं वा; न आर्जवम्, अभावार्थे नज-तत् । बिलकुल नहीं भी रहता। १ आर्जव, सरलता या स्वाच्छन्दयका अभाव ; सिधाई द्वितीय प्रकारके अनार्तव रोगमें रजः भीतर का न होना। २ रोग, आज़ार। (त्रि०) नास्ति निकलता है, किन्तु जरायुका मुख बन्द रहनेसे बाहर आर्जवं यस्य, अभावार्थे अव्ययी। ३ कुटिल, टेढ़ा। नहीं जा सकता। ऐसी अवस्था में ठीक अन्तःसत्त्वाकी ४ नौरोग, बीमारीसे बयौद। तरह जरायु बढ़ा करता है। उस समय यह मीमांसा अनातव (सं त्रि०) ऋतुः स्त्री-कुसुम तस्य भावः, करना कठिन है, कि यथार्थ गर्भावस्था या पीड़ाके ऋतु-अण् ; नञ्-तत्। तोरण् । पा ५।१।१०५॥ १ अनुत् कारण उदर बढ़ रहा है। क्योंकि क्षत रहनेसे पन्न रजः, रजोबद्ध ; जिस स्त्रीको महीना न होता हो। गर्भावस्थामें भी जरायुका मुंह जुड़ कर बन्द हो २ बेफ़स्ल, ऋतुरहित; जो मौसमके मुवाफिक सकता है । यदि यथार्थ हो भीतर रक्त निकला करता, न हो। तो उसे बाहर लाना आवश्यक है। जरायुका मुख अनार्तव (Amenorrhoea) पौड़ा तीन प्रकारको होतो सामान्य पतले चर्मसे बन्द हो जानेपर विष्टोरी है। प्रथम-एककालसे ऋतुका अभाव, द्वितीय किंवा साउण्ड शलाका द्वारा छेदकर सहजमें रक्त भीतर निःसृत होते भी बाहर रजःका प्रकाशन पाना, बाहर निकाल सकते हैं। किन्तु जरायुका मुख कठिन और तृतीय-ऋतु निकल पौछे बन्द हो जाना। चर्मसे बन्द होनेपर ट्रोकार द्वारा छेदकर रक्त निकाल स्त्रीका यौवन-काल अानेपर जरायुसे रजोनिःसरण डालना चाहिये। उसके बाद बूजी या स्पञ्जटेण्टका होने लगता है। इसे ही हम ऋतु कहते हैं। व्यवहार बढ़ानेसे फिर जरायुका मुख बन्द न होगा। ऋतु प्रत्येक चन्द्रमासमें अर्थात् २८-२८ दिन बाद तृतीय प्रकारका अनावर्त रोग ही अधिक देख प्रकाश पाता है। हमारे इस उष्णप्रधान देशमें तेरह पड़ता; यौवनकाल झलकनेसे पहले एकबार वर्षके वयःक्रमसे सोलह वर्षके वयस पर्यन्त स्वाभा ऋतु लगता है, उसके बाद फिर रजः देखने में नहीं विक ऋतुका काल रहता है। किन्तु सचराचर आता। किसी-किसीको दो-तीन मास किंवा यथा- कोई चौदह-पन्द्रह वर्षके वयसमें हो ऋतु प्राने नियम दो-तीन वर्ष पर्यन्त ठोक मास मास ऋतु लगता है। दूसरे किसी-किसीका रजः नौ-दश होता, पौछे हठात् रजः बन्द हो जाता वर्षमें ही प्रकाश पाते देखते हैं। शीतप्रधान अत्यन्त मनस्ताप, सायुके आघात, कासरोग, दुर्बलता, देशमें कुछ विलम्बसे ऋतु जारी होता है। किन्तु अतिशय शीतल द्रव्य-व्यवहार प्रभृति अनेक प्रकारके फिर भी चौदह और सोलह वर्षके भीतर ही अनेकका कारणोंसे यह उपसर्ग उठता है। वृक्कक (kidney) रजः निकलने लगता है। इस देशमें बालिकाका या गुर्देकी पौड़ासे भी रजोरोध हो सकता है। यह