पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५०२

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नाश, पीछेका किया हुवा। अनुविनाश-अनुवृद्धि ४६५ अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ-यह धीरे-धीरे गोल पड़ गया हो। अनुगतं वृत्तं शोलम्, सप्तऋषि। ५ विश्वामित्र । कहते हैं, कि विश्वामित्रने अतिक्रा-तत्। ४ शौलानुगत, सुशील, सच्चरित्र, भौ ब्रह्माकी सृष्टि के बाद कितनी ही वस्तुको सृष्टि लायक, तहज़ीबयाफ्ता, नर्मदिल । ५ पद्य श्लोक सजायी थी। ब्रह्माने जो मूंग बनायो, उसके परि प्राप्त, जो शायरोमें चढ़ गया हो। ६ दृढ़ताप्राप्त, वर्तमें विश्वामित्रका बनाया उड़द मौजूद है। इसी मज़बूत पड़ा हुवा। ७ अतीत, गया-गुजरा। ८ पश्चात् तरह गायके बदले भैंस और घोड़ेको जगह खच्चर ख्यात, पोछे मशहूर हुवा। ८पश्चात् मृत, जो विश्वामित्रने बनाया था। पौछे मरा हो। १० पश्चात् वृत, पौछ वरण अनुविनाश (सं० पु०) पश्चात् मटियामेट। अनुवृत्ति (सं० स्त्री० ) अनु-वृत-क्तिन्। १ पश्चात् अनुविन्द (सं० पु.) अनु पश्चात् विन्दतीति, विद गमन, पोछ की चाल, किसीको मर्जीके मुवाफिक श संज्ञायाम्। गवादिषु विन्टेः सज्ञायाम् । (पा ३।११३८ सूत्र कामका करना। २ पूर्वसूत्रके पदादिका परसूत्रमें वार्तिक । ) राजविशेष, उजैनके कोई राजा। इन्होंने आकामापूरणके निमित्त आकर्षणं । ३ अधिकार, कुरुक्षेत्र पहुंच भीष्मके पीछे-पीछे पाण्डवसे युद्ध सूचके छः प्रकार लक्षण मध्य एक लक्षण । यथा- ठाना था। "स'ज्ञा च परिभाषा च विधिनि यम एव च। "शकुनिः सौवल शल्य आवन्तोष जयद्रथः । अतिदेशोऽधिकारश्च षड़ विधं सूवलक्षणम् ॥" विन्दानुविन्दौ कैकैया: काम्बोजाश्च सुदक्षिणः ॥" (भीष्मपर्व १६।१५) अर्थात् संज्ञा, परिभाषा, विधि, नियम, अतिदेश अनुविधा (स अव्य०) विध्य पर्वतं अतिक्रम्य, और अधिकार-यह छः प्रकार सूत्रका लक्षण होता अव्ययी। १ विधापर्वतको अतिक्रम या उल्लङ्घनकर, है। पूर्वसूत्रके स्थित पदको परसूत्र में उपस्थिति विन्धाचल पहाड़को लांघकर। (पु०) २ अवन्तिदेशके अधिकार कहाती है। यथा- एक राजा। "सिहावलोकिताख्यश्च मण्डूकप्त तिरेव च । अनुविष्टम्भ (सं० पु.) कारणवश प्रतिबन्धक, जो गङ्गास्रोत इति ख्यातः अधिकारास्त्रयी मताः । रोकटोक किसी सबबसे लगायी जाये। पाकाहायान्तु सर्वेषामनुत्तिपरे भवेत्।" अनुविष्णु (स. अव्य०) विष्णुसे पीछे, विष्णु के बाद। अधिकार या अनुवृत्ति विविध रहती है। अनुवृत (सं० वि०) अनु पश्चात् वर्तते, अनु वृत्. १ सिंहावलोकित। सिंह जैसे थोड़ी दूरतक लक्ष्य १ पश्चाद्वर्ती, पश्चाभावी, अनुगत, जो लगाता, अनुवृत्तिका काम भी वैसे ही थोड़ी दूरतक पश्चाद्भागमें खड़ा रहे, पीछे फिरनेवाला, बादको रहता है। २ मण्डू कलुति-मण्डूक (मेंडक) जैसे पैदा हुवा, लगा, सटा। अनु पश्चाद् वृणोति, वृणुते थोड़ी दूर कूद जाता, वैसे ही दो-चार सूत्र छोड़ स्वा०, वृणाति वृणोते क्रा०, वरति-ते भा० वा विप. अन्य सूत्रमें अधिकार भी जा पहुंचता है। ३ गङ्गा- तुक्। २ पश्चावरणकारी, पश्चात् प्रार्थनाकारी, पीछे स्रोत-गङ्गास्रोत जैसे हिमालय पर्वतसे फट बहु दूर वरण देनेवाला, जो पीछे अर्ज गुज़ार। देशमें फैल बहता, वैसे ही अतिशय दूर पर्यन्त अनु- अनुवृत्त (सं० त्रि.) अनु-वत-ती। १ अनुगत, वृत्ति चली जाती है। समन्वय और सेवाको भी .पश्चाद्गत, पीछे पड़ा, तफसील-जेल, फ़रमांबरदार। अनुवृत्ति कहते हैं। देखो,- २ व्याकरणके अनुसार-पूर्वसूत्रसे परसूत्रमें आकाङ्क्षा “ये ममानुगता नित्य प्रसादधनभोजन। पूरणके निमित्त अन्वित पद, जो फि.करा नहवमें अनुत्तिं ध्रुवन्तेऽद्य कुर्वन्तान्यमहोभताम् ॥” (मार्कछेय चण्डी) पहले कायदेसे मतलब निकालनेके लिये पिछले अनुवृद्धि (सं• त्रि.). समान अनुपातमें वर्धमान, कायदेपर लगाया जाये। ३ क्रमशः गोल हुवा, जो बराबर मिकदारसे बढ़ते हुवा। क्विप।