पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५१७

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अच्छा लगे। ५१० अनूषर-अन्तु अनुषर (सं० त्रि.) १ लवणविशिष्ट, नमकीन। अऋणिन् (स' त्रि०) न ऋणी, नञ्तत्। ऋण- २ लवणरहित, जो नमकीन न हो। शून्य, बेकज, जिसे देना न रहे। अनूषित (स० वि०) अन्यके निकट वर्तमान, “पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा शाकं पचति खे रहे। दूसरेके पास रहनेवाला। अनृणौ चाप्रवासी च स वारिचर मोदते ॥" (महाभारत ३।३१२।११०) अनूष्ण (सं० क्लो०) उत्पल, ओला, पत्थर । अषण पर (सं० त्रि.) सिसकारीवालेसे पश्चादागत, अर्थात् हे वारिचर हंस ! दिनके पांचवें या छुट जो सिसकारी भरनेवालेसे पीछे लगा हो। भागमें जो अपने घर शाकपत्र उबाल कर खाता अनह (सं० त्रि.) विचारविहीन, चिन्तारहित, और अऋणी, अप्रवासी रहता, वही सुखी • बेख़याल, बेफिक्र। कहलाता है। अनुक्क (वै० त्रि०) ऋक्रहित, जिसमें ऋक् न रहे। अनृत (सं. लो०) न ऋतं सत्यम्, नञ्-तत् । अन्चक, अनृक्क देखी। १ असत्य, मिथ्या, नारास्तो झूठापन। २ मिथ्यावाक्य, अनृक्षर (वै० त्रि.) न सन्ति ऋक्षराः कण्टका झूठा कलाम, जो बात सच न हो। ३ कृषि, जरायत, यत्र, बहुव्री०। कण्टकशून्य, जो कांटेदार न हो। खेतीबारौ। 'वितथस्वनृतं वचः ।' (अमर) "अनृक्षरा जव: सन्तु पन्थाः ।" (ऋक् ११८५३२१) (त्रि०) ४ असत्य, मिथ्या, झूठ। अनृच (सं० पु०) नास्ति ऋक् यस्य, नञ्-बहुव्री० । अनृतक (स' त्रि०) अनृते मिथ्यावाक्ये प्रवृत्तम्, • अनभ्यस्त ऋक्मन्त्र अथवा अनुपनीत बालक, जिस कन्। मिथ्यावाक्य बोलने में रत, जिसे झूठ कहना लड़केका जनेऊ न हुवा हो। त्रि.) २ स्तुतिरहित । “अव नी जिना शिशीयचा वनेमानृचः।" (ऋक् १०।१०५।८।) अनृतदेव (सं० त्रि०) अनृता असत्यभूता देवा अन्जु (सं० त्रि०) नञ्-तत् । १ शठ, वक्र, कुटिल, टेढ़ा, यस्य। जिसका देवता मिथ्या ठहरे, झूठे जो सीधा न हो, बदमिजाज, बदजात। (पु.) देवतावाला। 'यदि वाहमनृतमेव ।' ( ऋक् ७१०४।१४) २ तगरपुष्पवृक्ष। अनृतद्दिष् (सं० त्रि०) अनृतसे द्वेष रखनेवाला, अनृण (सं० त्रि०) नास्ति ऋणं उद्धारो यस्य, नञ् जो झठसे बिगड़ा रहे। बहुव्रौ । ऋणशून्य, बेक़र्ज, जिसे कुछ देना न रहे। | अन्नृतभाषण (सं० क्लो०) असत्य कथन, झूठका ऋण न चुकनेसे पाप पड़ता है। जैसे उत्तमर्णके निकट धनादि उधार लेनेसे ऋण होता, वैसे | अनृतवदन, अनृतभाषण देखो । दूसरा भी मनुष्यका तीन प्रकार ऋण रहता है। अनृतवाक्, अनृतवादिन् देखो। यथा,- अनृतवादिन् ( स० वि०) अनृतं मिथ्यावाक्य वदति, "यजमानो वै पुरुषस्विभि ऋण ऋणी भवति । वद-णिनि। मिथ्यावादी, जो मिथ्या कथा कहे, स्वाध्यायन ऋषिभ्यः यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्यः ॥" नारास्तगो, झूठ बोलनेवाला। यजमान-ऋषि, देवता और पिटलोकके निकट अनृतव्रत (सं० त्रि०) व्रतको न पालनेवाला, जो खाध्याय, यन और पुत्रोत्पादन-इन तीन ऋणसे कामको निभा न सके। बंधा पड़ा है। स्वाध्याय अर्थात् वेदाध्ययन हारा ऋषि- | अनृताख्यान, अनृतभाषण देखी। ऋण, यन्न द्वारा देवऋण और पुत्रोत्पादन हारा अऋतिन् ( स० त्रि.) असत्यभाषी, भूठ बोलनेवाला, पिटऋण चुकाते हैं। झठा, जो सच न बाले। अनृणता (स. स्त्री०.) ऋणविहीनता, नाकजंदारी, अऋतु (स• पु०) न ऋतुर्वर्षादिकालः, नज्-तत् । कर्जका न होना। १ वर्षादि-भिन्न काल, बरसात वगैरहसे अलग वक्त, बोलना । -