पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५६८

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५६२ अन्वज्वर । फेफड़ेकी जलन उठनेसे गाल प्रायः सर्वत्र ही लाल पड़ जाते हैं। किन्तु फेफड़ेमें जलन न उठनेसे मुख- मण्डल रक्तवर्ण कैसे होगा। अनेक स्थलमें मुख विरस और निरक्त बनता, एवं चक्षु गड्ढे में धंस जाते हैं। पीड़ा अत्यन्त कठिन उठनेपर रोगी अङ्गुलि से अपना बिस्तर नोचेगा। यदि उसके निकट कोई व्यक्ति बैठे, तो रोगी उसके कपड़े फाड़ने दौड़ता, बीच-बीच दांत पीसता; बात कहते समय तोतलेको तरह बोलता है। सर्वदा ही हस्तपदको पेशीमें आक्षेप पड़े, जिससे अङ्गुलि रह-रह कांप जायेंगी। एवं रोगी नाड़ो पकड़नेसे पुनः पुनः हाथ खींच लेता है। किसीका चक्षु तो रक्तवर्ण बनता, किसौक में वर्णका कोई व्यतिक्रम नहीं पड़ता। पोड़ा कठिन उठनेसे चक्षु अधखुला रहेगा। ऐसी अवस्थामें रोगी पुकारने किंवा शरीर हिलानेसे आंख मिला देख सकता, किन्तु रोग प्राणघातक होनेपर उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। किसी-किसी स्थलमें रोगी चक्षु फैला स्पष्ट देखे, किन्तु किसोपर भ्रक्षेप न सम्मुख किसौके निकलनेसे रोगी उसे पहचान भी नहीं सकता। चक्षुका तारा कहीं फैल भी जाता है। नाड़ी प्रथम क्षीण और द्रुतगामिनी होगी। कभी कभी केचुयेकी तरह फूल हट हटकर वह चलती है। हृत्पिण्डकी क्रिया निस्तेज पड़ जानेसे नाड़ीका वेग क्रमशः बढ़े और गति भी वक्र होगी। प्रथम प्रति मिनट १२० स्पन्दन प्रायः सर्वत्र होता है। किन्तु कठिन अवस्थामें उत्तरोत्तर वेग बढ़ा करेगा। १३०,१४० स्पन्दन अतिशय कुलक्षण है। सुस्थ अवस्थामें हृत्पिण्डसे दो शब्द निकलेंगे। हृदय फैलानेको बड़ा और सिकोड़नेको छोटा शब्द उठता है। उत्कट ज्वरादि रोगमें नाड़ी क्षीण और वेग- वती बननेसे द्वितीय शब्द प्रायः सुन नहीं पड़ता। ऐसी अवस्था में मणिबन्धसे नाड़ीमानयन्तु (sphygmo- graph) लगा नाड़ी देखनेसे सुरमेदार आईनेपर तीन रेखा खिंच जायेंगी। उनमें एक रेखा तिरछी पड़ ऊर्ध्वदिक्को दौड़ती है। यही क्षुद्र रेखा होगी। दूसरौ रेखा निम्न दिक्को उतरती है। वही अपेक्षा- कृत बड़ी निकलेगी। बड़ी रेखाके बाद ही किञ्चित् स्थान सिकुड़ जाता है। नाड़ीकी ऐसी आकृतिको कुलक्षण समझेगे। अन्तज्वरमें पेट और वक्षःस्थलपर गुलाबी रङ्गका कोई चिह्न निकल आता है। दाग अल्प गोलाकार किञ्चित् उच्च,-हाथ हिलानेसे खूब अच्छी तरह देख पड़ेगा। एवं अङ्गुलिके अग्रभागसे अल्प दबा देनेपर क्षणकालके निमित्त वैठ जाता, उसके बाद हौ फिर निकल आता है। अनेक-स्थल में ही यह चिह्न सातसे चौदह दिनके भीतर झलक उठेगा। हमारे देशमें अन्तज्वरका अन्यान्य लक्षण स्पष्ट रूपसे झलकनेपर भौ रक्तवर्ण चिह्न कदाचित् देखनेको मिलता है। युरोपमें टाईफयेड ज्वर अतिशय प्रबल है, किन्तु वहां भी सबके गावमें यह चिह्न नहीं झलकता। परिपाक यन्तको विशृङ्खला हो इस ज्वरका प्रधान लक्षण है। पीड़ा उठनेसे पहले ही रोगी कुछ खाना न चाहेगा। यत्सामान्य भोजन भी पेटमें परिपाक नहीं होता। किन्तु इससे बिलकुल विपरीत लक्षण भी किसी-किसी स्थलमें विद्यमान मिलेगा। रोगी अज्ञान अवस्थामें पड़े रहते भौ मुखमें जो पहुंचता, उसे खा डालता है; किसी प्रकार क्षुधाको निवृत्ति नहीं होती। किन्तु ऐसा लक्षण क्वचित् देख पड़ेगा। अनेक स्थलमें ही जिह्वा सूख और फट जाती, उसपर कांटे निकल आते हैं। कहीं कृष्ण- वर्ण, कहीं खेतवर्ण और कहीं कटुवर्ण लेपसे उसका ऊपरोभाग ढंक जायेगा। मुखके रसका लेशमात्र देख नहीं पड़ता। रोगोसे जिह्वा निकालनेको कहनेपर, वह अन्यमनस्कताके कारण शीघ्र कैसे निकाल सकता है। फिर निकाल कर भी वह शाघ्र मुखके भीतर उसे दबा न सकेगा। किसी-किसी अवस्थामें जिह्वा निकालते समय रोगी कांप उठता है। उत्कट अवस्थामें किसी रोगीका पोष्ठ कृष्णवर्ण पड़ता और फट जाता एवं मसूड़ेसे रक्त गिरने लगता है। दन्त भी कृष्णवर्ण हो जाते हैं। करेगा।