पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५९४

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५८८ अन्धराजवंश अशोकके अनुशासन समूहमें उनका एकमात्र प्रियः। मौर्याब्द पर्यन्त आधिपत्य किया। इस वंशके अन्तिम दर्शी नाम मिलता, अशोक नामका कहीं कोई उल्लेख नृपतिका नाम वृहद्रथ बताया गया है। उनको मार नहीं पड़ता ; अथच अशोक और प्रियदर्शी अभिन्न उनके सेनापति शुङ्ग पुष्पमित्रने मगध-सिंहासन छौन होते, वैसे ही यूनानी ऐतिहासिकोंके सेण्डोकोटस्को लिया था। वहद्रथके राज्यावसानमें अर्थात् १५३ हम अशोकसे अभिन्न मानते हैं। बौद्ध, जैन और मौर्याब्द या २१८ हृष्टाब्दमें पुष्पमित्रने शुङ्गवंशको ब्राह्मण पुराण समूहके अनुवर्ती होनेपर भी हम नींव डाली। आश्चर्य का विषय है, कि वृहद्रथके मौर्य सम्राट अशोकको हौ महावीर सिकन्दरके पतन और पुष्यमित्रके मगध लेते समय मौर्य- सामयिक समझ सकते हैं । अशोक शब्दमें विस्त त विवरण देखी। साम्राज्य-भुक्त भारतसे अपरापर प्रदेश भी यूनानी राजदूत मेगासस्थेनिस्के वर्णनसे समझ स्वाधीनता पानको आगे बढ़े थे। इसी पड़ता है, कि उनके पाटलिपुत्र में रहते समय कृष्णा समय दाक्षिणात्यमें अन्ध वंशने, कलिङ्गमें चेतवंशने, और गोदावरी नदीके मध्यवर्ती स्थलपर यह अन्धवंश सिवा इसके मशिक, कुसुम्ब प्रभृति बहुवंशने अपना आधिपत्य करता था। एवं प्राच्य ( Prasii) या शिर ऊपरको उठाया था। कलिङ्गाधिपति जैन- मगधाधिपतिके बाद ही उनका सेनावल समझा राज खारबेलको हाथीगुम्फाके शिलालेखमें देखते, कि जाता था। अन्धराज्यके मध्य १२ प्राचौरवेष्टित उनके द्वितीयवर्ष या १५४ मौर्याब्दमें (२१८ ई०का नगरी, असंख्य बड़े ग्राम-सिबा इसके एक लक्ष पूर्वाब्दमें ) अन्धराज शातकर्णि विद्यमान थे। इधर पदाति, दो हज़ार अश्वारोही और एक हजार हाथी प्राचीन शिलालेख, मुद्रा और पुराणादिमें हम एका- थे।* किसीके मतसे उस समय समुद्रगर्भमुखौ धिक शातकर्णिका नाम देखते हैं। ऐसी अवस्था कृष्णा नदीके तोर श्रीकाकुल नामक स्थानमें अन्ध ठहराना कठिन पड़ेगा, कौन शातकर्णि खारबेलके राजको राजधानी थी। सम्राट अशोकके त्रयोदश समसामयिक थे। गिरिलेखमें भी मिलता, “अन्ध और पुलिन्द सम्राट्का नानाघाटसे शिमुख शातवाहनका शिलालेख धर्मानुशासन पालते थे।" निकला है। बुल्हर प्रभृति पुराविदोंका विश्वास है, ठीक नहीं मालूम पड़ता, किस समय अन्धगणने कि इसी शिमुख नामक लिपिकरके प्रमादसे विभिन्न मौर्य-सम्राट्को अधीनता मानी थी। शायद उन्होंने पुराणको हस्तलिपिमें 'शिशुक, सिन्धुक, छिस्मक, नाममात्र अशोकका अधीश्वरत्व स्वीकार किया। क्षिप्रक इत्यादि नाम पड़ा होगा। सकल महा- अशोकके कलिङ्गविजय और असंख्य प्राणिहिंसाके पुराणमें ही शिमुक या सिन्धुकके बाद ही उनके संवादसे जब समस्त दाक्षिणात्य विचलित पड़ा, तबसे भ्राता कृष्णका उल्लेख मिला है। नासिकको गुहासे अन्धराज मौर्यवंशके करद नृपति समझ गये। कोई निकले शिलालेखके मध्य मिलता है,- कोई पुरावित् सोचता, कि मौर्य सम्राट अशोकके "सादवाहनकुले कण हराजिना नासिककैन समनेन महामातेन लेन मरने बाद दूरवतौं अधिक्कत प्रदेशके भूस्वामी सभीने कारित। स्वाधीनताको घोषणा की थी। किन्तु यह मत समो अर्थात् यह गुहा शातवाहनकुल वाले कृष्णराजके चौन नहीं मालूम पड़ता। महामन्त्री नासिकवासी श्रवणने बनवायी थी। ब्रह्माण्डपुराणसे हमें निश्चय होता, कि मौर्य उक्त कृष्ण शातवाहनको गुहालिपिके अक्षर वंशीय ११ नृपतिने कुल १५३ वर्ष अर्थात् १५३ बहुत कुछ हौ अशोक लिपिके समान देख पड़ते हैं। नासिकको गुहासे गोतमीपुत्र शातकणि और Pliny, Hist. Nat. Book VI, 21-23. † Burgess-Archaeological Survey Report of Southern वाशिष्ठीपुत्र पुलमायोको जो लिपि हाथ लगी, कृष्ण- India, p. 3. राजको लिपिके साथ उसका यथेष्ट पार्थक्य वर्तमान