पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६०३

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अन्नपाक-अन्नपूर्णा ५६७ चावल भारी होता है, शीघ्र पचता नहीं, पर खानेमें गौरीशङ्करमें भी वही झगड़ा हुआ था। उसोसे यह बहुत अच्छा लगता है। यहां मोगलोंके भात बनाने अन्नपूर्णामूर्ति हुई। की प्रणाली लिखी जाती है। शिव तो सहज ही भंगड़ी भोला-लोगोंके हारके पतला और साफ पुराना अरवा चावल एक सेर। भिखारी हैं। भिक्षुकको सुख कहां? कभी भिक्षा अच्छा घी एक पाव। चावल और घी दोनोंको एक मिली और कभी न भी मिली। जब न मिली तब साथ मिलाकर पत्थरपर बहुत देर तक रगड़ना। उपवास करना पड़ा। इसीसे पार्वतीसे रात दिन इस तरह रगड़ लेनेपर उस चावलके साथ केशर झगड़ा हुआ करता था। एक दिन शिव भिक्षा आधा तोला, लवङ्ग चौथाई तोला, छोटी इलायची मांगने गये। हार हार घूम आये, पर त्रिभुवनमें कहीं चौथाई तोला, दालचीनी चौथाई तोला, पिस्ता दो| भी उन्हें भिक्षा न मिली। उधर महामाया अपनी तोला, कटी हुई गरी दो तोला और अदरख दो माया प्रकाशकर काशीमें अन्नपूर्णा होकर बन बैठीं। तोला मिला देना। फिर उसे एक हांडीमें रख उसमें जिनके घरमें आप ही अन्न नहीं है, वह अकातर पतला मसालेदार जल छोड़ देना। इसके बाद भावसे संसारके मनुष्योंको अन्न बांट रही हैं। इतने में हांडीको आगपर चढ़ा और ढककर मन्द मन्द अांच शङ्कर वहां जा पहुंचे। पद्मासनपर अन्नपूर्णा विराज लगने देना। जब चावल कुछ पक जाय, तो उसे रही हैं। बायें हाथमें अन्न व्यञ्जन आदिका थाल है, उतार लेना और उसके ऊपर और चारों ओर अङ्गार और दाहिनेमें चमचा। सामने पञ्चानन महेखर रख देना। इस तरह चावल धीरे-धीरे पककर सुसिद्ध खड़े अन्नदासे अन्नभिक्षा ले रहे हैं। वही विचित्र हो जायगा। प्रणयप्रतिमा यह अन्नपूर्णामूर्ति है। हम लोगोंके शास्त्रानुसार श्राद्धका अन्नपाक अन्नपूर्णाके ध्यानमें लिखा है,- करनेका अधिकारी सपिण्ड ही है। दूसरा कोई उस "रक्ता विचित्रवसनां नवचन्द्रच ड़ा- चावलको नहीं पका सकता । मनप्रदान निरतां स्तनभारनमाम् । पाकस्थली में किस तरह अन्न पचता है, इसका नृत्यन्तमिन्टुसकलाभरण विलोक्य विस्तारित विवरण परिपाक शब्दमें और कुछ विवरण हृष्टां भजे भगवतौं भवदुःखहन्त्रीम् ॥" अन्त्र शब्दमें देखो। अन्नपूर्णा देवी रक्तवर्ण और विचित्र वसन धारण अन्नपानी-अन्नजल देखो। किये हैं। उनके ललाटमें अड़चन्द्र सुशोभित है। अन्नपूर्णा (सं० स्त्री०) अन्नं पूर्ण यया। अन्नसे पूर्ण वह सदा अन्न वितरण किया करती हैं। उनका भगवतीको मूर्त्तिविशेष ; : काशीवरी; अन्नको शरीर स्तनभारसे झुक गया है। वह नृत्यपरायण अधिष्ठात्री देवी। अन्नपूर्णा देवी काशी में प्रतिष्ठित हैं। एवं चन्द्रखण्डभूषित महादेवको देखकर प्रसन्न हुई शङ्कराचार्यसे पहले अर्थात् कमसे कम १५०० वर्ष उन्हों भवदुःखहारिणी भगवतीका भजन हुए काशी में अन्नपूर्णाको मूर्ति स्थापित की गई थी। करता है। इसका विस्तारित विवरण काशी शब्दमे देख । इस समय वन चैत्रमासको शुल्लाष्टमीको पूजाको विधि है। देशके नाना स्थानोंमें देवौजौके उत्सव और मालूम होता है, रोमवासो हमारे देशमें वाणिज्य नवान्नके समय लोग मट्टीको अन्नपूर्णा बनाकर, पूजा करनेके लिये आकर हमारी अन्नपूर्णको पूजा-पद्धति करते हैं। सौख गये थे। हमारी अन्नपूर्णाके नामके साथ रोमक अन्नपूर्णमूर्ति क्यों हुई, इसके भीतर अधिक कोई 'अन्नपेरणा' देवीके नामका सम्पूर्ण सादृश्य है। रोमक बात नहीं है। तुम्हारे हमारे साधारण मनुष्योंके लोगोंको यह अनपरेणा देवी अन्न वितरण करती घरमें उठते बैठते दोनों बेला जो कुछ होता है, थीं। आमेण्टाइन पर्वतपर जानेसे रोमक लोगोंको 150