पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अक्षरलिपि ५६ युक्तिका समर्थन किसी तरह किया जा नहीं सकता, कि सन् ई० से पहले को ८वीं शताब्दिके बाद फिनिक (Phenician) नामक बणि कोंसे भारतवासियोंने अक्षरज्ञान प्राप्त किया था। सन् ई०से पहलेको ६ठीं शताब्दिमें शाक्य बुद्धका अभ्युदय हुआ। उनके निर्वाण प्राप्त होनेसे कुछ ही पीछे उनके धर्मोपदेशीको रक्षा करनेके लिये उनके प्रधान-प्रधान शिथोंने इकट्ठा हो पहला बौद्धसङ्घ आ- ह्वान किया। फान्सोसौ पण्डित फूको (Foucaux) और राजा राजेन्द्रलाल मित्र महाशयने ललितविस्तर- को समालोचनाके समय लिखा था, कि ललित- विस्तर में जो गाथा हैं, वह इसी समय (सन् ई०से पहिले को ठीं शताब्दिमें) बनाई और संग्रह को गई थीं। उन गाथाओंमें इस तरह वर्णन किया गया है- “सा गाथलखलिखिते गुण अर्थयुक्ता या कन्ध ईदृश भवेन्मम तां वरथा: ।” (ललितविस्तर १२ १०) (शाक्यसिंहने कहा) जो कन्या गाथालेख लिखने और गाथाका अर्थ समझने में चतुर होगी, उससे में विवाह करूंगा। कही हुई गाथासे क्या हम नहीं जान सकते, कि ढाई हज़ार वर्ष पहले इस देशमें लिपिज्ञानकुशला महिलाओंका भी अभाव न था। यह बात सहज ही अनुमय है, कि ढाई हज़ार वर्ष पहले जहां कन्या लिखने में निपुण न होनेसे राजकुमारको पत्नी बननेके योग्य न समझो जाती थी, उस देशके लिये अक्षर- लिपिको चर्चा कितनी पुरानी है। ललितविस्तरको गाथामें लिपिशाल + और लिपिशास्त्रका उल्लेख होनेसे स्पष्ट मालूम होता है, कि उस पुराने समयमें भो लिपि सिखानेको पाठशालाएं और नाना देशोय लिपिज्ञानके उपयुक्त लिपि-शास्त्र ( Paleogra- phy and Epigraphy) प्रचलित था। ब्राझी प्रति सिलियोंका उत्पत्ति-काल । इस समय यहां बालोच्य है, कि जिस प्राचीन कालकी बात चल रही है, उस समय भारतमें कैसे अक्षर प्रचलित थे। पूर्वोक्त ललितविस्तर में चौंसठ प्रकारको लिपिका उल्लेख देख पड़ता है। यथा- १ ब्राह्मो, २ खरोष्ठी, ३ पुष्करसारी, ४ अङ्ग, ५ वङ्ग, ६ मगध, ७ माङ्गल्य, ८ मनुष्य, ८ अङ्गलोय, १० शकारि, ११ ब्रह्मवल्ली, १२ द्राविड़, १३ कनारी, १४ दक्षिण, १५ उग्र, १६ संख्या, १७ अनुलोम, १८ अ धनु, १८ दरद, २० खास्य, २१ चोन, २२ इण, २३ मध्याक्षरविस्तर, २४ पुष्य, २५ देव, २६ नाग, २७ यक्ष, २८ गन्धर्व, २८ किन्नर, ३० महोरग, ३१ असुर, ३२ गरुड़, ३३ मृगचक्र, ३४ चक्र, ३५ वायुमरुत्, ३६ भौमदेव, ३७ अन्तरीक्षदेव, ३८ उत्तरकुरुद्दीप, ३८ अपरगौड़ादि, ४० पूर्वविदेह, ४१ उत्क्षेप, ४२ निक्षेप, ४३ विक्षेप, ४४ प्रक्षेप, ४५ सागर, ४६ वज्र, ४७ लेख- प्रतिलेख, ४८ अनुद्रुत, ४८ शास्त्रावर्त्त, ५० गणनावत, ५१ उत्क्षेपावत, ५२ विक्षेपावत, ५३ पादलिखित, ५४ हिरुत्तरपदसन्धि, ५५ दशोत्तरपदसन्धि, ५६ अध्या- हारिणी, ५७ सर्वभूतसंग्रहणी, ५८ विद्यानुलोम, ५८ विमिश्रित, ६० ऋषितपस्तता, ६१ धरणीप्रक्षण, ६२ सौषधिनिष्यन्दा, ६३ सर्वसारसंग्रहणी और ६४ सर्वभूतरुतग्रहणो। (ललितविस्तर १० अ०) जिस ललितविस्तर में पूर्वोक्त लिपिमालाका नाम उद्धृत हुआ है, उसी ग्रंथका चू-फ-लन्ने सन् ६८ ई०के समय चीन-भाषामें अनुवाद किया था । * ऐसे स्थलमें मूल ग्रंथके सब जगह फैलने और इसके बाद चोनदेश पहुंचनेमें अल्प समय न लगा होगा। पाश्चात्य और इस देशके राजा राजेन्द्रलाल मित्र-प्रमुख

  • Beal's Romantic Legend of Sakya Buddha, Intro-

duction.

  • Dr. Rajendralul Mitra's Lalita Vistara, Intro. p. 56,

1 "गास्वाणि यानि प्रचरन्ति च देवलोके संख्या निपिच गणनाऽपि च धातुतन्त्रः । ये शिल्पयोगपृथु लौकिक अप्रमेया स्तेष्वंषु शिक्षितु पुरा बहुकल्प कोव्यः । किन्तु जनस्व अनुवर्त ना करोति लिपिशालमागतु सुशिक्षितशिक्षणार्य' । (ललितविस्तर १० अ०) "लोकोत्तरषु चतुः सत्यपथ विधिज्ञो हेतु प्रतीत्यकुशली यथ सम्भवति । यथ चानिरोधक्षयु संस्क तुसोतिभावस्तस्मिन् विधिज्ञ: किमथो लिपिशास्त्रमाचे ॥" (ललितविस्तर १० अ०)