पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६५८

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६५२ अपय इस चण्डालने ऐसा क्या अपराध किया, जो उसके छुनेसे जल अपय हो जायेगा। इस विषयमें अनेक ऐति- हासिक वृत्तान्त हैं। पूर्वकालमें शास्त्रकारोंने जैसा अनुभव किया, उसीके अनुसार उन्होंने नियमोंको बनाया है। पहले चण्डालादि नीच जातियां पथिकोंका सर्वस्व अपहरण करनेके निमित्त कूप आदिमें विष मिला देती ; प्यासे पथिक जब उन कूपोंका जल पौते, तब वह अज्ञान होकर पड़ जाते; चोर उनका सर्वस्व अपहरण कर चम्पत बनते थे। समय भी भारतमें नानाप्रकारके कौशलसे पथिकको धतूरा दे देते, धतूरेके विषसे अज्ञान हो पथिक पड़ता और दुष्ट लोग उसका सर्वस्व अपहरण कर भाग जाते हैं। यह जातियां खभावतः निठुर और अविश्वासौ होंगी। इनके हाथका द्रव्य पीना या खाना उचित नहीं ठहरता। यमस्मृतिके मतसे कच्चामांस, घृत, मधु,फलसम्भत नेहवस्तु, म्लेच्छादि को हांडीमें रहनेसे अपेय द्रव्य हैं; किन्तु यदि उसमें से वह निकाल ली जायें, तो शुद्ध होगी। जावाल, शातातप, और शङ्खमुनिके मतसे क्षत्रिय वैश्य शूद्रके नूतन पात्रका जल, दुग्ध, दधि, घृत, तैल, अखका रस, गुड़, सौरा और मधु प्रभृति द्रव्य भक्षण करनेसे कोई दोष नहीं लगता। शास्त्रकार बायें हाथपर रखकर जलका पीना निषिद बताते हैं। लघुहारीतके मतसे जलसत्रका जल, कूपमें जिस घड़ेसे सब लोग जल निकालें उसका जल, द्रोणी प्रभृति जिस पात्र द्वारा खेत सींचे उसका जल और हथियार वगैरहके बीचमें रखा हुआ जल अपेय होगा। यमका मत है कि, इन पात्रोंका जल भूमिपर डालकर पीनेसे कोई विशेष आपत्ति नहीं आती। अङ्गिराके मतसे मलमूत्रसंस्पृष्ट कूपका जल पौने- से प्रायश्चित्त करना चाहिये। यद्यपि ऐसे कूपके जलमें मलमूत्रादिका खाद वा गन्ध न रहे, तथापि प्रायश्चित्त करना आवश्यक होगा। विष्णुके मतसे क्षुद्र जलाशयमें विष्ठादिका संसर्ग होनेपर उसका जल अपेय है। वृहत् जलाशयमें इसतरह मलमूत्र होनेसे पासका जल न पीना चाहिये, किन्तु, अन्य घाटके जलको व्यवहार करने में दोष नहीं लगता। विष्णुने दूसरा भी नियम बनाया, जिस कूपमें कुत्ता आदि प्राणी मर जाये या जिसमें उसका श्लेष्म रक्त आदि गिरे, उस कूपका जल पीना अनुचित है। यदि ब्राह्मण आदि किसी कारण ऐसे कूपका जल पो ले, तो उसे प्रायश्चित्त उठाना पड़ेगा। ब्राह्मण विरात्र, क्षत्रिय हिराव, वैश्य एकरात्र, और शूद्र दिनसे रात होनेतक उपवास कर पञ्चगव्य पोये । कूपमें पञ्चनखका मांस सड़ जानेसे आपस्तम्बने अधिक नियम बनाये हैं। उनका मत है, ऐसी जगह ब्राह्मणको छः दिन उपवास करना चाहिये। मनुष्यके मृतदेहसे दूषित होनेवाला जल भी अपेय होगा। ज्ञानपूर्वक उसे पौनेपर बारह दिन उपवास उठाना आवश्यक है। गोदोहन-पान, मशक, कोल्हू, दूधको मिलावट, शिल्पीके शिल्पकार्य और अप्रत्यक्षमें स्त्री-बालक वृद्धके असद्व्यवहारका जल काम आ सकता है। चर्मभाण्ड या कलसे उद्धृत और अपवित्र वस्तुसे मिली हुयी धाराका जल यदि परिमाणमें इतना अधिक पड़े, कि उससे एक गोको तृष्णा मिट सके, तो अन्य जल न मिलने पर आपत्कालमें उसे भूमिपर गिरा पो सकेंगे, उसमें कोई दोष नहीं लगता। वर्षाकालमें वृष्टिका जल तीन दिन बाद पिया जाता है। अकालको दृष्टिका जल दश दिन पर्यन्त अपेय रहेगा। यदि इस बीच में कोई उसे पी ले, तो शास्त्रानुसार उसको प्रायश्चित्त कर्तव्य है। वृष्टिके. और शूद्र द्वारा लाये हुये जलसे नान, आचमन, दान,. देवपूजा, पितृतर्पणादि वैध कर्म कुछ भी न करे। वैसा जल पीना भी निषिद्ध होगा। गङ्गा, यमुना, प्लक्ष- जाता सरस्वती प्रभृति समुद्रगामिनी नदी और शोण प्रभृति नदको छोड़ दूसरी सकल नदी श्रावण और भाद्रमासमें रजस्वला रहती हैं। इसलिये उन सकल नदीमें नहाना और उनका जल पौना न चाहिये। समुद्रका जल भी अपेय होता है मनु प्रभृति प्राचीन ऋषिने नियम निकाला है, 1