१० कपोत माहार तथा निदा त्याग करती है। कपोत पौर कपोतोंमें स्त्रीजातिही यथेच्छ-व्यवहार चलाती है। कपोतो दोनों शावकको खिलाते हैं। प्रथमतः यह जो अनेक स्थलमें एक कपोतोके लिये दो कपोत लड़ते खाते, उमीको अपने उदरस्थ खाद्यके प्राधारमें रख देखे गये हैं। फिर कपोती नूतन कपोतको पोर और दुग्धवत् तरल पदार्थेमें परिणत कर शावकके मुक पड़ी है। इसी प्रकार दो दम्पतीके मध्य विवाद मुखमें पहुंचाते हैं। कुछ दिन बीतने पर वही | बढ़नेपर परस्पर स्त्रीपरिवर्तन हुवा है। · सन्ध्याकाल पदार्थ मण्डवत् कर और शेषको अगलित रख कपोत अति शीघ्र शीघ्र सहप्रवेश करता, किन्तु खिलाया जाता है। इसी प्रकार वयोहदिके साथ अन्यान्य पक्षियों की भांति प्रातःकाल ही उसे छोड़ खाद्यको अवस्था बदल क्रमशः कठिन द्रव्य खिलाना नहीं चलता। सूर्य का किरण कुछ अधिक प्रच्छा सिखाते हैं। लगता है। इसको दृष्टिशक्ति और श्रवणशक्ति पति डिम्ब फटनेसे ५।६ दिन पीछे पालकको रेखा देख तीक्ष्ण है। कपोतके दोनों पक्ष प्रति सबन्त और पड़ती है। एक मासके मध्य शावकका सर्वात वधु हाते हैं। इससे यह बहुत हुत उड़ सकता है। पालकसे पाच्छादित हो जाता, किन्तु उसे चुगना साधारणतः कपोत देखने में अति सुन्दर लगता नहीं पाता। फिर भी इस समय वह पितामाताके है। इसका वर्ण और आकार नानाप्रकार है। साथ उड़ भूमिपर उतरना और घोंसलेपर चढ़ना चञ्चु अधिक दीर्घ नहीं रहता, प्रायः १ इन्चसे भौ सौखता है। इतने दिन उसे खिला देना पड़ता अल्प पड़ता है। उसके दोनों भाग' सरल एवं ईषत् . है। मास वा दो मासका होनेपर शावक चुगने सङ्कुचित होते हैं। किसी चञ्चुका अग्रभाग अल्प लगता है। और किसीका अधिक सुक नाता है। ऊपरी कपोत-पक्षके शेष भागमें श४ बड़े पालक रहते चच्च के मूलमें ईषत् मांस उभरता है। यह मांस हैं। प्रथम उनसे पक्षी उड़नेके उपयुक्त १० पालक अति कोमल और समान होता है। इसी मांसपर निकलते हैं। जिस प्रकार सात वत्सरक वयसमें बिलकुल कपालके नीचे दोनों सरल' नासाविवर मनुष्यक कच्चे दांत गिर फिर पाते, वैसे ही उड़ना रहते हैं। कपालसे ऊपर मस्तक गोल हो पश्चात् भारम्भ करनेवाले कपोतके पक्षस्थित पालक झड़कर दिक को ढल जाता है। मुखका विवर अत्यन्त क्षुद्र. पुनः प्रकाश पाते हैं। सर्वान-पक्षक उड़नेयोग्य भीतरी धा अति वृहत् नहीं होता। दोनों चक्षु पञ्च से पर प्रथमसे प्रारम्भ हो भाड़ा करते हैं। एक जबतक विस्तर पश्चात् मस्तकके दोनों पाच पर समसूत्र- पातसे पवखान करते हैं। पक्ष अधिक दोघं होते है। भड़कर भर नहीं जाता, तबतक दूसरेका गिरना असम्भव पाता है। इसी प्रकार पञ्चम पालक गिरने किसी-किसी श्रेणोके कपोतका पक्ष लपेट लिया पर कपोतका वयस बदलता है। फिर दशम पालक जादसे शेष प्रान्त सूक्ष्म पड़ता और शिसीका ईषत् झड़ जानेसे यह युवावस्थाको प्राप्त होता है। गोलाकार बनता है। पुच्छके पालक भी इसी प्रकार' कपोस फल शस्यादि खा जीवनधारण करता है। भिव-मित्र आकार धारण करते हैं। पुच्छ में प्रायः यह किसी प्रकारके कीटादि नहीं खाता। किन्तु १२से १४ तक पालक रहते हैं। वह अन्यान्य . किसी श्रेणीका कपोत शुद्र-क्षुद्र थम्बूक खा जाता स्थानक पालकसे यथेष्ट दोघं होते हैं। फिर किसो- किसी श्रेणौवाले कपोतके पुच्छमें सोलह या दश हैं। हिन्दुस्थानका कबूतर गुटरगू' बोलता है। यह हर्षके समय हो शब्द करता, पीड़ित होनेपर मात्र पालक होते हैं। साधारणः इसके पैर घुटनेके मौनी रहता है। कयोत अपनी श्रेणोको कपोतोको) नपरी भाग पर्यन्त पालकसे आच्छादित रहते हैं। मनोनीत करता, किन्तु सहपालित मनुष्यके वशीभूत | प्रा.लि नातिदीर्घ होती हैं। पैरमें तीन अङ्गति हो जानेसे भिन्न श्रेगोदालोके साथ भी रहता है। भागे और एक पोछ पाते हैं। पचात्को प्रालि
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