पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कों तरकों “पायु, वंश तथा मुख बढ़ता और रोग एवं कलिदोष ५५८, महामा० द्रौण, दहत्संहिता १४११) इसका वर्तमान छूट पड़ता है। निर्दोष कर्केतन पहननेवाला सर्वत्र नाम कारा है। यह जयपुर राज्य में पड़ता है। पूजित, अनेक धनशाली, बहुबान्धव, दीप्तिमान् पौर, कको टकविष (सं० लो०) कर्कोटकस्य विप, कको- नित्यवत रहता है। यह मणि जितना, उज्वल डेका जहर। तथा गुरु मिलता, उतना ही मूल्य भी अधिक लगता कीटका, कोठको देखो। है। -(७५०) कर्कोटको (सं० स्त्री.) कोटक.गौरादित्वात् डोप । कतन भारतवर्ष, सिंहल, उत्तर अमेरिका, १ पौतघोषा, बनतरोयो। इसका संस्कृत पर्याय- मिसर, रूसके यूराल पर्वतस्य तजोवाजनदोगर्भ, कटु फला, महाजालिनी, धामार्गव और राजकोषातको जिल, मोरविया और गुम होता है। है। धामार्गय देखो। २ कोषातको, तरोयो। ३ फल- दक्षिण भारतमें कोयम्बातुरसे २० कोस ईशान कोण | थाकविशेष, गोल कुम्हड़ा। यह सूत्राधान, प्रमेह, पर ककेतनकी खानि है। यह नाना स्थानपर मर परोचक, मच्छ, अश्मरी तथा टपणाहर, पुष्टिकर, वृष्य, कत, इन्द्रनील प्रभृतिके साथ देख पड़ता है। खाटु और वस्य होती है। ( राजनिघण) यह हरित, नील प्रभृति नानावर्णविशिष्ट होता कर्कोटकोफल (सं० ०.) १ घोषाफल, तरोयो। , है। उत्कष्ट कर्केतन पल्प हरित् वा दूर्वा दणके २ वृत्तकुमाण्ड, गोलकुम्हड़ा। ३ झिङ्गाफल, ककोड़ा। वर्ण सदृश रहता है इसमें प्रोग्वत्य भी अधिक कर्कोटपन (स'• लो०) कर्कीटपत्र, ककोड़ेका पत्ता। यह देख पड़ता आपेक्षिक गुरुत्व ३.६से ३८ पर्यन्त | वमनमें घोंटकर पिलानेसे रोगीका हितसाधन करता है। लगता है। इससे स्फटिक काटते हैं। फिर क- कर्कोटमूल (सं० लो०) कीटक मूल, ककोड़ेको जड़। तनको काटने छाटनेमें इन्द्रनील और माणिक्य कोटवापी (सं० स्त्री०) कॉटनाम नागिन कता पावश्यक है। इसको रगड़नेसे वैद्य तिक ज्योतिः । वापी, मध्यपदलो। काशीस्य तो विशेष । निकलता, जो गुणके अनुसार कयो घण्टे रह सकता "ककोटवाया गाये मरोः कुयसपमम् ।" ( कायौसड) है। अर्धस्वच्छ कर्केतन विडालाची ( लहनिया) को टिका (सं० स्त्री० ) ककोट साथै कन-टाप् प्रत नामसे बाजारमें बिकता है। त्वम् । १ कुमाण्डो लता, पेठको वैच। २ कर्को- प्रति अन्ज्वल स्वच्छ कर्क तनका मूल्य अधिक टक, ककोड़ा। ...यह १०.०)से ३०००) रु. तक पाता है। कर्कोटिकाकन्दरन (सं० को०) को टमूलचूर्ण, कको कसर, ककतन देखो। डेको जड़का चूरन। कण्डुरोगमें यह सूधा जाता है। कधुकी (सस्त्री०) भूवदरी, झड़वेर । कको टो (सं० स्त्री.) १ कको टिका, ककोड़ा। कर्कोट (म यु०) कर्क-पोट । नागराजविशेष, २ देवताड़ वृक्ष। सांपोंका एक राजा। "अनन्नी वासतिः पनी महापग्रो ऽपि | कर्कोल (सं० को.) कोल, शीतलचीनी। तधकः । ककी'टा कुलिका गड इत्यटो नागनायकाः ॥” ( विज्ञापयेष) करिका (सं० स्त्री.) के सुखं यथा तथा धर्यते अकोटक (संयु.) कर्क कण्टकमयत्वात कठोरं उपयुच्यते, क-चर-कन् पृषोदरादित्वात् साधु: । पिष्टक अति प्राप्नोति तहत् : कायति प्रकायते, ककप्रद विशेष, कचौरी, दालपूरी। यह उढ़दको पोसौ दाल गेहके पाटेमें भर और धीमें तलकर बनायो अच्-कन् पृषोदरादित्वात् भोकारादेशः। १ विल. जाती है। इध, वेलका पेड़। कद्रुपुत्र नागराज । ३ इन्च, 'जख। ४ फलशाकलताविशेष, ककोड़ा, खेखसा। करी (सं. स्त्री० ) कं जलं चुर्यते पत्र, क-चर-डोर इसका फल स्थावर विषके अन्तर्गत है।, फलविष देखो। पुषोदरादित्वात् साधुः। करिका देखो। ५ महामारत तथा पुराणोक्त जनपदविशेषः। (मार्कसेयपु० की - (हि.स्त्री.) पषिविशेष, एक चिड़िया । -