पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/११८

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११६ २ हरिताल - कचर (सं० ली.) १ सुवर्ण, सोना। कर्णशष्कुली उपास्थिक सङ्गठनके अनुसार उच्च पौर विशेष, किसी किस्मका हरताल । निम्नगामी है। इसके गभीर एवं प्रशस्त मध्यस्थानको कचूर (सं० १० ली.) कर्ज-कर, पुपोदरादित्वात् । कर्णस्थाली (Concha) और निन्नतम दोलायमान साधुः। १ कवूर,हरताल । २ स्वर्ण, सोना । ३ एकाडी अंशको कपाली (Lobe) कहते हैं। कर्णस्थानीसे नाम वणिग् द्रव्य, कचूर । यह कट, तिक्त, उण, मुख गोल छिद्र नीचे चले गये हैं। भारतमें कर्णवेधके परिष्कारक और कफ, कास तथा गलगण्डनायक समय कर्णपाची छेदी जाती है। वहिक में एक है। (राजनिवट ) चरकने त्वक शून्य कचेरको रुचि उपास्थि होता है। उसमें कई छिद्र रहते हैं। वही कारक, अग्निवर्धक, सुगन्धि, कफ एवं वायुनाशक छिद्र सूत्राकार मारी झिझीमें पूर जाते हैं। कर्ण- और खास, हिका तथा पर्थोरोगके लिये हितकर शक तोके एक भागसे अपर भागको कई पेशियां कहा है। ४ प्रामहरिद्रा, प्रामाइलदी। ५ पटी, पहुंची है। पेशियां कुल तीन हैं। वह पार्श्वस्थ जङ्गली अदरक। शिरत्वक् (Sealp)से कर्णमें फैली हैं। मनुष्यके लिये कच्रक . - (सं० पु.) कर स्वर्णमिव कायति प्रका. पेधियां अधिक आवश्यक नहीं। किन्तु स्तन्धपायो शते, कर के -क। इचर देखो। जीवके पचमें पेशियां अवश्य रहना चाहिये। कर्ज (अ.पु. ) ऋण, उधार । कर्णप्रणाली आध इच्च परिसर होती है। वह वाज़ दार ( फा• वि० ) ऋणा, देनदार, उधार कर्णस्थानीसे अभ्यन्तरको गयी है । उसके उभय लेनेवाला। पार्च की अपेक्षा मध्य भाग अधिक सीधा रहता है। कर्जा, का देखो। इसीसे कणके अभ्यन्तर कोई चीज पर जाने पर निका- कर्नी (हि. पि०) अधमणं, कजंदार, जो उधार ले लने में कष्ट पड़ता है। अधोभाग ऊपरी भागकी चुका ही। अपेक्षा इत् रहने कारण कर्णप्रणालीके सिरेसे मध्य कर्णः (सं• पु.) कीर्यते क्षिप्यते वायुना शब्दा यत्र, कर्णको झिनी तिर्यक्भावपर अवस्थित है। कर्ण- कृ-न-नित् कयते प्राकखते अनेन,कर्ण करणे अप् वा । प्रणाली पस्थिगर्भ और उपास्थियुछ है। यस्थिगभ कृतऋषिद्रुपन्धनिर्पियो निन् । उए ।१०। १ अवन्द्रिय, गोश, भाग मध्य मिलोसे लिपटा सूक्ष्म धग होता है। कान। इसका संस्कृत पर्याय-शब्दग्रह, थोव, शुति, किसी किसी प्राणोके वह खतन्त्र भावसे केवच अस्थिको श्रवण, यक्ष, ग्रौत्र और वोग्रह है। श्रवणेन्द्रियके भांति रहता है। वाह्याभ्यन्तर समुदाय अवयवक लिये 'कणे' मन्द व्यव कर्णरन्धके वहिर्भागमें सुखाभिमुखी स्थानका नाम द्वत होता है। किन्तु गहरके प्राकाशस्थानमें ही कर्णपत्रक ('rragus)। कर्णके रन्धर्म खोलदार अन्यि कणेन्द्रियका कार्य चलता है। सुतरां उसी भाका रहता है। इसी ग्रन्थिके कारण कोट वा मलादि शको 'श्रवणेन्द्रिय कहते हैं। इस इन्द्रियको अधि. कर्णमें प्रवेश कर नहीं सकता। ‘डाट देवता दिक् हैं। शब्द कर्णका विषय ठहरता है। कर्णक वहिार और विवरके मध्यवर्ती गर- भाजकलक शारीरतत्वविद पण्डित मनुष्य और यावं को मध्यकर्ण वा ढका (Tympanum): कहते तीय स्तन्यपायी जीवकाकणं तीन मागमें विभक्त करते हैं।. यह स्थान वायुपूर्ण है। वायु गलकोयसे हैं-१ वहिःकर्ण, २ ढका (Tympanum) और कर्या यष्ट्रिकियान नन्नी होकर ढकाम धुसता है। ढकाको भ्यन्तरस्य विवर (Labyrinth)। फिर वहिके दो झिली और कविवरके साथ सघन अस्थियणी अंश होते हैं-कर्णशकु लो ( Auricle ) और कर्ण- संयुका है। प्रणाली वा कर्ण वहिदार (Auditory canal or ढकाका गदर देखने में असमान और सौधी सोधी external meatus ) i सूक्ष्म बोमवत् उपलकसे सन्जित है। यह उपलक .