पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/१२७

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. १२८ कर्णनासा-कर्णपुट कानमें डालने कर्णनादरोग आरोग्य होता है। २ कर्णभूषणविशेष, कानको बानी। ३ कर्ण पानी- (चक्रदर) गत रोग, कानको लोमें होनेवाली एक बीमारी। यह कर्ण नासा (सं० स्त्री०) श्रोवेन्द्रिय तथा प्राणेन्द्रिय, पञ्चविध होती है-परिपोट, उत्पात, उन्मन्य, दुःख.. कान और नाका बधन और परिलेहो। (मनुत ) कर्णन्दु (सं० स्त्री०) स्त्रीके कानको बाली, तरोना, पात। कर्ण पाश (सं० पु० ) सुन्दर कणं, खूबसूरत कान। कर्ण पत्रक (सं० पु०) कणे पत्रमिव कायति शोभते, । कर्ण पिशाची (सं० स्त्री०) कर्ण स्वरूपं पिनष्टि, कप कर्ण पत्र कैक। कर्ण पाली, बाहरी कानका हिस्सा। पिट भावयति नाशयति खरूपदर्थ नेन, कर्ण -पिण कर्ण पथ (सं० पु.) कर्ण एव पन्याः, अच्। कर्ण- विप-प्रा.चि-पिच्-अच्-डोष । देवौविशेष, एक च्छिद्, कानका छेद। कर्ण कुहर ही शब्दके प्रवेशका शक्ति। इसका ध्यान है- पथ है। "वषां रक्तविलोचना विनयनां खुश नम्बोदरों, कण पर (सं० पु०) कर्णालङ्कार, कानका जे.वर । बन्ध कारुणनितिका परामयामीपुक्करामन्म खौम्। कर्ण परम्परा (सं० स्त्रो०) कर्णानां परम्परा, ६-तत् । धूमाचिटिला कपालविलसत् पापियाँ पक्षा, श्रोत्रे न्द्रियको प्राचीन प्रथा, कानको पुरानी चाल । सजा शवहन कताधिवसतो याचिों व नुमः ।" एकसे दूसरे और दूसरेसे तीसरे कानमें क्रमश: रखवणे, रक्तचक्षु, विनयना, खर्वाक्कति, लम्बो- विषयको विस्त ति होने का नाम कर्ण परम्परा है। दरो, बन्ध कपुष्यवत् रजिता, वर तथा अभयदानसे कण पराक्रम (सं० पु०) अपनेशयोग्य विविध छन्दो. उभयकर व्याप्ता, जयमुखी, धनवर्णा, जटामालिनी, युक्त काव्यविशेष, किसी किसकी शायरी। अपर इस्त हयमें नरमुण्डता, चञ्चला, शवहृदय- कर्ण पर्व (सं० क्ली०) महाभारतका अष्टम पर्व। वासिनी और संज्ञा पैशाचिकोको नमस्कार है। इस पर्वमें कर्ण के सेनापतित्त्व ग्रहण करनेके पीछे निशाकाल वा पधरानकी उता ध्यान लगा पूजा. होनेवाली सकल घटना वर्णित है। कर्ण देखो। करना चाहिये। दग्ध मत्स्यका वलि निम्नलिखित. कपा (सं. पु०) कर्ण रोगविशेष, कान की एक मन्त्र पढ़ कर चढ़ाया जाता है-“ों करपियाचि दग्धमौन- बलिंग्छ ग्टम मम सिद्धि कुरु कुरु खाहा।" बीमारी। क्षत, अभिघात, पिड़का वा वातादि तीन दोष कुपित होने पर रक्त अथवा पीतवर्ण स्राव निक पूजाके दिन प्रातःकाल कुछ जप कर मध्याइ को. संता और कर्ण का मध्य अतिशय उष्ण पड़ जलने एकबार निरामिष खाना चाहिये। प्रात:कालको ही बराबर रातको भी नप करना पड़ता लगता है। इसीकी कर्णपाक रोग कहते है। (मुलन) | ताम्बर मालती-पत्रका रस अथवा मधुके साथ गोमूत्र कर्ण में | लादि भिन्न रातको अन्य भोजन नहीं पाते। जपका डालनेसे कर्ण पाकरोग विनष्ट होता है। फिर इरि- दशमांश तर्पण करना चाहिये। निम्नलिखित मन्त्र एक लक्ष पुरश्चरण कर दशमांश होम होता है- ताल तथा गोमूत्र मिला अथवा जामुन और प्रामके "पों कर्ष पिशाची तर्पयामि ही खाहा।" नूतन पत्र एवं कपित्य तथा कार्यासके वीज समभाग कूट पौस और रस निकाल कानमें भरनेसे भी कण अभावमें दशभाग तर्पण कर वर मांगना चाहिये। पाक मिट जाता है। (घनदान) यन्त्रपर चन्दनसे मूलवीज बना इष्टदेवताको पूजा कर्ण पालि (सं० स्त्री०) कर्ण पालयति शोभयति, करना पड़ती है। आकाशमैं हुडारादिकी भांति शब्द कर्ण-पाल-इन् । कण लसिका, बिनागोग, कानको उठने और दीर्घ पग्निशिखा भनकने पर साधकका कार्य सिद्ध होता है। सौ। (Lobe) कर्ण पाली (स. स्त्री.) कर्ण पालयति शोभयति, कर्णपुट (सं० लो०). कर्णस्य पुटम, (तत्। कर कए पास-पप-डोष्। १.कर्ष निका, कानको लो। छिद्र, कानका केद। ।