द्वितीय पुत्र काट-काटक अपर द्राविड़ोंके निकट पाभिजात्य और मर्यादामें मनवार, कोचिन और महिसरमें रहते है। इनकी कुछ हीन हैं। अपर श्रेणीके ब्राह्मण इन्हें अपनी कन्या संख्या १० लाखसे अधिक है। यह देखके गठनको नहीं देते। किन्तु खाना-पीना एक ही में चलता है। सुत्री और प्राकृतिसे उत्तराञ्चलके ब्राह्मणों की भांति कनाड़ा वा कर्णाटिक प्रदेशमें यह रहते हैं। कना- लगते हैं। ड़ेक सकल पधिवासी प्रायः लिङ्गायत् है। सम्मान | कोट (स. पु० ) रागविशेष । यह मेघरागका प्रदानकी बात छोड़ वह समय समय इनको निन्दा है। इसकी रात्रिके प्रथम प्रहर गाते हैं। उड़ाया करते हैं। फिर भी किसी कर्णाटके उनके कर्णाटको स्त्री कार्याटी, रङ्गानाथी, मलावारी, मल्लिका घर अतिथि होनेपर भादर अभ्यर्थनाको परिसीमा पौर चौरङ्गी हैं। नहीं रहती। वह कायमन-वाक्यसे सेवा उठा उसको कर्णाटक-१ दाक्षिणात्य को एक भाषा। यह प्रधान यथेष्ट सन्तुष्ट करते हैं। नतः तीन भागमें विभक्त हैं-तेलगु (तैलङ्ग), तामिल कर्णाट इस प्रान्तके ब्राह्मणों की भांति यनमान (द्राविड़ी) और कर्णाटक.( कर्णाटी)। तेलगु उत्तर, द्वारा परिपोषित न होते जीविकानिर्वाहके लिये वस्त्र सामिल दक्षिण और कर्णाटक .भाषा मन्द्राजके पश्चि- कर्म छोड़ नानाप्रकार कार्य चलाते किसी मांशसे पश्चिमोपकूल पर्यन्त समस्त प्रदेशमें प्रचलित किसीको पेटको जलनसे खेती भी करना पड़ती है। है। यही तीन दाक्षिणात्यको प्रधान भाषा हैं। इनमें यह ऋक् अथवा यजुर्वेदी होते हैं। इनकी प्रधा- कानाड़ा, दक्षिण महाराष्ट्र, महिसर, निजाम राज्यके नतः अष्ट शाखा है-१ हैग, २ वात, ३ श्रीवेलरी, पश्चिमांश और विदरमें कर्णाटक भाषाका पधिक ४ वर्गीनार, ५ कन्दाब, ६ कर्णाटक, ७ महिसर-कर्णा- चलन है नीलगिरिमें रहनेवाली बड़गजाति भी टक और ८ श्रीरनाद (श्रीनाथ)। वासस्थानानुसार शायद प्राचीन कर्णाटी भाषा ही बोलती है। प्राचीन कर्णाट ब्राह्मणों के भिन्न भिन्न नाम मिलते है कर्णाटीको आजकल 'हलकवड़' कहते हैं। महाराष्ट्र गोत्र उपाधि कुल और महिमरमें जो खोदित शिलाफलक मिले, उनमें पादकर्णाटक महिमुर। पनेक प्राचीन कर्णाटी अक्षरसे लिखे हैं। गौतम कणकर वयन'लुर। मन्द्राज वा बम्बई रेसिडन्सीके सिविलियन पौर मुकिनार मारी। अन्यान्य गवरमेण्ट कर्मचारीको यह सकल देशीय वशिष्ठ चौरजपचन। भाषा सीखना पड़ती हैं। इनकी शिक्षा देनेको प्रवन्ध विश्वामित्र कर्णकम्युत देवन्दहालौ। बांधते समय कर्णाटी भाषाके सम्बन्धमें अनेक विषय माणिज्य मुकिनारु होसुरवागलोर। गर्ग. नबीन काटक मागदी। संग्रह किये और लिखे गये। इसीसे ई. सप्तम पगिरा पेरीचरण मुलूबागलु।। शताब्दको. केशवपण्डितने 'गणरत्नदर्पण' नामक एक देशस्थ मालीका धातु सम्बन्धीयं पुस्तक बनाया, जो इस भाषका हलकर सूर्यपुरम्। मूखव्याकरण कहाया है। उपमन्य प्राचीनकटक यामराजनगरम्। कर्णाटो भाषा संस्कृतादिकी भांति वाम दिकसे पेरीचरण कुरक। दक्षिणको लिखी जाती है। इसके शब्द लिखने में जिस शाविषय प्राचीनकीटक हागलबारी। जिस वर्ण वा युक्ताक्षरका प्रयोजन पड़ता, वह-पास हो सकिनार चिवदुर्ग। मराज सुकिनारु 'शिवमगी। पास बनता है। दो शब्दों वा पदोंके मध्य आवश्यक सिवा इसके कुटी, नन्ञ्जमगुरु प्रभृति दूसरे भी कई छेद डालनेकी न तो कोयी व्यवस्था और न वाक्य वा घर हैं। वाक्यांशके पीछे किसी चिह्नका व्यवहार है। कर्णाटो कर्णाट ब्राह्मण उत्तर एवं दक्षिण कनाड़ा, तलुब, वर्णमालामें सब ५३ अक्षर होते हैं। उनमें १६ स्वर, Vol, IV. 35 कश्यप भरद्वाज बयलनारु बा भरखाज काश्यप गौतम
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