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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/१५०

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कपूररस-कर्म 'कप रस वा रसकपूर कहाता है। कुसुम, चन्दन, वा, कर्ब दर्षे उरच्। मन राहयय । उप १६४२ । १ स्वर्ग, कस्तुरी तथा कुश्मयुन्य रसकर सेवन करनेसे फिरत विहित । २ धुस्तूरवृक्ष, धतूरेका पौदा। ३ गन्धपटो, रोग हरता और अग्नि एवं बलवीर्य बढ़ता है। (भावx०) कचर । ४ श्रामहरिद्रा, कञ्चो हलदी। ५ जल, पानी। काररस (सं० लो०) सरोवर विशेष, एक तालाब । ६ राक्षस ७ याय, गुनाह। ८ नदीजात निष्पाव कपरहरिद्रा (सं. स्त्री०) खनामख्यात द्रव्य, कपूर धान्य, जड़हन धान । स्वर्ण, सोना। १० हरिताल, हलदी। यह शीतल, वातन्त, मधुर, तिक्त और पित्त हरताल। (नि.)१० नानावण, कबरा। तथा सर्वकण्डन्न होती है। कपुरक (सं० पु.) १ भामहरिद्रा, कच्ची हलदी । कग (सं० स्त्री०) कप-उर-टाप । तरटी,आमा इलदी। २ गन्धशटी, कचर। ३ निष्पावधान्य, जड़हन धान। कपरादितैल (सं० ली.) तैलविशेष, एक तेल । कवुरफल (सं० यु०) कवुरं चित्रवर्ण फलं यस्य, कपर, भन्नातक, शङ्खचूर्ण, यवक्षार तथा मनःशिला बहुव्री०। साकुरुण्डवक्ष, एक पेड़। चार चार तोले तेलमें भली भांति पका २० तोले कर्बुरा (सं• स्त्रो०) कर्बुरस्टाय। १ कृष्णतुलसी। इरिताल मिलानसे यह बनता है। एसके प्रयोगसे २ बबरी। ३ सविष जलायुका भेद, एक जहरीली •सकल योनिरोग आरोग्य होते हैं। जोंक। ४ पाटलाहक्ष, पाडरीका पेड़ । क' राश्मा (सं० पु०) उपरत्नविशेष, एक कीमती | कर्बुरित (सं० वि०) कर्बुरो ऽस्य जातः, कवुर-इतच् । पत्थर । २ स्फटिक, बिजौरी पत्थर । चिवित, चितकबरा। करिल (सं० वि० ) करो ऽस्यास्ति, कपूर काशा- | कवुरी (म' स्त्रो०) कवु र गौरादित्वात् डौष । दुर्गा । दित्वात् इत् । वन्छएकठजिलेव्यादि। पा ।।८० । कपर- कबूर (सं० पु० को०) कति गर्व प्राप्नोति यस्मात्, युक्त, काफरी, कपुरी। कब ऊर्। १ स्वर्ग, मोना। २ हरिताल। .३.शठी, कर (पु.) कार्यते चिप्यते, क-विच, कास्यते कचूर । ४ राक्षस। ५ द्राविड़क,कच्ची हलदो । ६ नाना- फल फवस्य स; कोर्यमाणः फलः प्रतिविम्बो यत्र, वर्ण, चितकबरा रंग। बहुप्री। दर्पण, पायोना। कवूरक (सं० पु०) कबूंर खार्थे कन् । १ हरिद्राम कर (सपु.) मूशिक, चूहा । वृक्ष । २ कृष्ण हरिद्रा, कानी इसदौ । ३ कपूरहरिद्रा, कबर (सं० पु. ली.) १ पुण्डकेच, पौड़ा। २ स्वर्ण, पामाइलदी। सोना । ३ धुस्तूरच, धतूरेका पौदा। ४ व्याघ, बाध। कबूरित (सं० वि० ) करोऽस्य सनातः, कबूर- काबरी (सं० स्त्री०) १ शृगाली, मादा गीदड़ । २ व्याधी, बतच । नानावणे विशिष्ट, चितकबरा। कर्म (सं० पु. लो. ) व कर्मणि मणिन् पर्चादि। कवं (स.वि.) मिश्रितवर्ण, कवरा, धबदार। कार्य, काम। जो किया जाता, वह कर्म कहाता है। कदार. (सं० पु.) कबुरिव कर्बुः सन् वा श्वेमार्ण वैयाकरण पण्डित कहते हैं- मलं वा दारयति, कर्बु-णिच्-अच् । १ कोविदारतक्ष, "तकियानाथयत्वे चति नक्रियाजन्यफलभाखिन्न कर्मत्वम् ।" लसोड़ेका पेड़। २ खेतकाञ्चन, सफे.दकचनार। यह जो क्रियाका पाश्रय न होते भी क्रियाजन्य फल: ग्राही और रक्तपित्तमें हितकर है। (राजनिघण्ट) विशिष्ट रहता, वही क्रियाका कर्म ठहरता है। जैसे- ३ नौनझिण्टी, तेंदू। इसीसे भावनूस निकलता है। वह भोजन बनाता है। यहां कर्तृसमवेत पाकक्रियाका कर्बुदारक (• पु०) कर्बुदारवत् कायति, कर्बुदार प्रनाथय भोजन पाकजन्य विक्लिप्ति रूप फलविशिष्ट के-क यहा करिव नेमाणं दारयति, कबुणिच होता है। इससे उस भोजन कर्म सक्षणका लक्ष्य खल। भातक इच, चालतका पेड़। बगता है। यह कर्म तीन प्रकारका निर्वत्यं, कबुर (सं. पु.ली.) कर्बति गति भस्मात् अनेन | विकार्य और प्राप्य। जो भविश्यमान वस्तु उत्पति वाधना.