पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/१५२

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१५३ है। फिर धाति कम चार प्रकारका है-मानावर और दुझेय कम तत्व प्रति मनोहर तथा विस्तारित शीय, दनावरणीय, मोहनीय और पान्तयं । तत्वज्ञान रूपसे सुवोधगम्य बना बताया है। द्वारा मुक्ति न मिलनेको ज्ञान मानावरणीय कर्म है। गीताके हतीयाध्यायले षष्ठाध्याय तक, तथा भाईत दर्शन पढ़नेसे मुक्ति न होनेका भान दर्शनावर- बयोदशाध्यायमे कम सम्बन्धीय भनेक विषय भौर यीय कर्म कहाना है। शास्त्र में मुखिके परस्पर विरुद्ध अन्यान्याध्याय, कम सक्षान्त कोयो न कोई महत् अनेक पथ प्रदर्शित हुये हैं। किन्तु उनमें मुक्तिके प्रसङ्ग पित है। किन्तु बतीय अध्याय केवन कर्मामक प्रक्वत कारणका अनवधारण मोहनीय कर्म है। मोचक है। इससे उसको कर्म योगाध्याय कहते हैं। पथमें प्रदत्तिका विघ्न डालनेवाला कम पान्तये कहाता श्रीवष्णके मतने शारीरिक व्यापारका नाम कम है। है। फिर अधाति कम भी चार प्रकारका है-वेदनीय, कर्म का अभाव अकम कहाता है। फिर कम शास्त्र. नामिक, गोत्रिक और आयुष्क। ईश्वरतत्वको पपना विधेय और कर्म शास्वनिषिद्ध होता है।.सिवा इसके जातव्य माननेघाला अभिमान वेदनीय कर्म है। अमुक कर्मभकर्म और अकमसे कर्म भी बन सकता है। नामविशिष्ट होनेका पभिमान नामिक कर्म कहाता कर्मका विभाग नाना प्रकार है। वैषयिक विविध है। अमुक वंशमें जन्म ग्रहण करनेका पभिमान सुखाभिलाष, प्ति वा वर्गादि पुण्यफलप्राप्तिको गोविक कर्म है। फिर शरीररचाके लिये किया कामनासे किया जानेवाला कर्म काम्य कराता है। जानेवाला कर्म घायुष्क माना गया है। उन चारो वैषयिक कामना न रख पहंज्ञान परित्यागपूर्वक सर्व- प्रकारका कम मुक्ति के लिये विघ्नकरी न रहनेसे अधाति व्यापक ईश्वरको एक मात्र सत्ताके ज्ञानसे पनन्यचित्त कहाता है। उसको भविमें उसीके प्रीत्यर्थ जो कर्म करते, उसे नैयायिक क्रियाकी कर्म बताते और उसके पांच निष्काम करते हैं। फिर चित्तशुचिके चिये नियमित विभाग लगाते हैं। यथा-उत्क्षेपण, पवक्षेपण, कर्म नित्यकर्म है। शरीर, वाक्य, मन प्रतिका पाकुच्चन, प्रसारण और गमन । जिस क्रिया द्वारा प्रवर्तक पञ्चविध कारण शरीर, कर्ता (अर्थात् चित्त कोयी चीज़ उठायी जाती, वह उत्क्षेपण कहाती एवं अहहार), चक्षु, कर्ण, इन्द्रियादि, प्राणादिके है। अधोदेशको किसी वस्तुका संयोग करानेवाली विविध वाघुका व्यापार और चक्षुकर्णादिका भानुकूल्य- क्रिया अवक्षेपण है। जिस क्रिया हारा प्रस्फटिस वस्तु कारी सूर्यवायु इत्यादि है। ईशरको ही सत्वामें मुद्रित पड़ती, उसे विदाण्डली पाकुचन कहती है। दुय-मायाको सत्ला रहती है। सत्व, रज: और तमः मुद्रित वस्तुको प्रस्फटित करनेवाली क्रिया प्रसारण विविध गुण मायासे निकला है। पृथिव्यादिमें ऐसा कोई है। गमनक्रिया द्वारा एक स्थानसे अन्य स्थान पटुंचते. सत्व नहीं, नो विगुणसे मुक्त हो। सुतरां सभी विगुणके है। फिर गमन पांच प्रकारका होता है-भ्रमण, । प्रादुर्भावमेदसे भिन्न भिन्न कर्म करते और कर्मके रेचन, स्यन्दन, जवंज्वलन और नियंग गमन । यथा- सालिक, राजसिक तथा तामसिक विविध विभाग "उपर्ण ततोऽवक्षेपणमाकुधन तथा । बनते हैं। विशेष कर्मके विशेष विशेष फल और पाप- प्रसारणव गमनं कर्मा तानि पञ्च च। समर्थ रचर्म स्पन्दनीय ध्वस्वनमेव च। पुण्यादिका नियन्ता ईश्वर नहीं। प्राकृतिक प्रजा तिर्यम्गमनमभ्यव गममादेव अभ्यते " (भाषापरिष्के) मीय नियम वा दुवा करता है। अहंभाव अर्थात् पूर्वमीमांसक ज्ञान अपेक्षा कमका प्राधान्य खोकार कर्तृलाभिमानशून्य, आत्मोयके प्रति स्नेह तथा शव के करते, किन्तु वैदान्तिक कहते-कम से मान श्रेष्ठ प्रति वैषवर्जित और फलाकाड,क्षा-रहित हो जो है। कारण मान न होनसे मुक्ति कैसे मिल सकती है।' नित्य कर्म किया जाता, वह साविक कहाता है। उक्त मतवैषम्य मिटानेको महायोगेश्वर श्रीक्षयने फत्ताकाचा और असारसे ..प्रतिपय पायासमें भगवडीतामें पतिचमत्कार महोत्कट मत. देखाया होनेवासा कर्म रानसिक है। अपनी भविष्यत् सभामासे Yol. IV. 39 1