कर्म । १५४ वित्त बिगाड़, परसा विचार और निज सामर्थ्य पर। परित्यागपूर्वक केवल कर्तव्य बोधसे कार्यका अनुष्ठान दृष्टि न डाल किये जानेवाले कर्मका नाम तामसिक सात्विक त्याग है। ऐसा त्यागो सत्वगुणसम्पन मेधावी
- है। ज्ञान, बुद्धि, ति, श्रद्धा और कर्ताका भी सत्वा और संशयविरहित होता है। वह दुःखावह विषयसे
नुरूप विविध लक्षण दर्शित हुवा है। फिर यज्ञ, तपः, द्वेष और सुखावह विषयसे अनुराग नहीं रखता। दान और पाहारके भी इसी प्रकार तीन तीन भेद कहे फलतः उसोको कम फलत्यागी कह सकते हैं। हैं। . कमका रूपभेद इन्हों. सबपर निर्भर करता है। दुःखावह विषय कायल थके भयमे छोड़ना राजसिक श्रीकृष्णने ज्ञान तथा कर्म उभयको प्रशंसाकर त्याग है। फिर मोइवशतः नित्य कर्म न करना ताम- ज्ञानको महोत्कर्षता देखायी है। उन्होंने कहा, सिक त्याग कहाता है। इस स्थानपर उभय मतके 'जो व्यक्ति प्रकत ज्ञानो, आत्मतत्त्वज्ञ तथा प्रात्माके सामनस्यसे थोकणने कहा-पण्डितोंने काम्यकम के प्रसाद आत्मक्रियासे हो श्रात्मा सन्तुष्ट रहता, उसको त्यागको संन्यास और सकस प्रकार कर्मफल छोड़नेको अपने लिये कर्मका कोई प्रयोजन नहीं पड़ता। फिर त्याग बताया है। यन्न, दान और तपस्या छोड़ना न कर्म करनेसे.न तो उसे कोई इष्ट और न करनेसे न चाहिये। यह कार्य विवेकियों की चित्तशुद्धिका कारण कोई प्रत्यवाय (पाप.) लगता है। किन्तु इस उक्ति हैं। निश्चयरूपसे प्रासक्ति और कम फन को छोड़ यह अनुयायी कर्मकाण्डवाली अकर्तव्यताको प्रांगका समस्त कार्य करना ही श्रेष्ठ है। कम का त्याग कभी -मिटानको भित्र भिन्न प्रकार भिन्न भिन्न अध्यायमें कर्तव्य नहीं ठहरता। ज्ञानयोग श्रेष्ठ है। फिर श्रीकृष्णने सर्वदा स्मर्तव्य उपदेश दिया और सांख्य, ज्ञानमित्तिस्थापित भस्ति-उद्भावित शान्ति उससे भी योग तथा पूर्वमीमांसाके भापाततः विरोध मतका श्रेष्ठ होती है। किन्तु विधेय. कारम्भ भिन्न जब सामञ्जस्य किया है.। कम बन्धनखरूप पर्थात् मुक्ति के जानलाभमें व्याघात पाता, तब तत्तत् कम वर्नन की लाभका वाधक कहा गया है। इससे सांख्य-मनी. अपेक्षा साधन अवश्य लगाया जाता है। ज्ञानोपदेशसे .षियोंने दोषावह देख कर्मका त्याग ठहराया है। फिर मानस-त्तिकी प्रवत चालना द्वारा और अभ्यासके भी मोमांसकोंके मतानुसार यज्ञ, दान और तपस्याको बस इन्द्रिय वशीभूतकर आसक्ति परित्यागपूर्वक जो कभी छोड़ना न चाहिये। उता उभय मत मानते महा व्यक्ति कर्म का अनुष्ठान उठाता, वही थेट कंहाता विरोध पड़ जाता है। किन्तु- प्रकत पक्षों कोयी है। आसक्ति त्यागयर्वक ईखरके उद्देश न किया विरोध नहीं। कारण देहधारी मात्रको शेषरूप जानेवाला कर्म बन्धन है। ईखरके उद्देश कृत कम कम त्यागको क्षमता कहां! कम को छोड़ कोई प्रकृत यन्च कहाता है नाना कामना-सिद्धिके लिये क्षणकाल भी टिक नहीं सकता। इच्छाके विरुद्ध जो कम और वैदिक क्रियाकलाप चन्नता, उससे मन प्रजातिका गुण मनुष्यको कमरत बनाता है। दर्शन, केवल कम की सिद्धि पर ही टिका रहता और ईखरसे अवण, स्पर्श, घ्राण तथा भोजन पांच ज्ञानेन्द्रियके और विमुख पड़ता है। फिर नाना मनुष्य नाना प्रतिस्य गमन, पालाप, स्वप्न, निखास, मलमूत्रादित्याग, नेत्र होते हैं। ऐसी अवस्था में जैसे बालकको लङ्गड़ का उन्मीलन एवं निमौलन पांच कर्मेन्द्रियके - कम हैं। लोभ देखा विद्याको शिक्षा में लगाते, वैसे ही कम- ..यह इन्द्रियों को खतः प्राकृतिक नियमसे करना पड़ते | फन्तको,पायासे क्रियाकलापादि चला धर्म के सोपानका है। इच्छा इनको रोक नहीं सकती।, अभ्यासके बल एक निम्न अङ्ग बताते हैं। सहयात्रा प्रजामा प्रादि कर्मेन्द्रिय (वाक, पाणि, पाद, पायु पौर उपस्थ )को झोकमें थोकणने यही भाव व्यक्त किया है। जैसे संयम करते भी जिसके मनमें लालसा बनी राती, अग्नि प्रथम धूमाच्छन्न रहता, वैसेडी सकस कम के उसे विहन्महतो कपटाचारी कहती है।. त्याग भी प्रारम्भमें दोष देख पड़ता है। किन्तु परित्याग न कर सत्वानुरूप विधा भेदात्मक है। प्रासबि और कम पान कर्म को धैर्यावलम्बनपूर्वक चलाना चाहिये । अन्त में 1