पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/१५४

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कर्म-कर्मकाण्ड सिद्ध व्यक्तिको किसी क्रियाकलापका प्रयोजन नहीं और सौहार्य परिगणित है। - मुतरां.जो सर्वभूतके लगता। किन्तु कमको सिदि चाहनेवालेको उसका हितमें रत रहता, मन मित्र पर समान प्रीति तथा प्रयोजन बना रहता है। फिर तर पुरुष श्रेष्ठके दया रखता और स्वीय इष्टामिष्ट भूल सर्वकम ईश्वरको कार्यका अनुगामी होता है। इससे सिद्ध पुरुष समर्पण करता, उसोको विहान् परम योगी कहता है। जनहितार्थ तत्तत् कर्म कर सकता है। सिधिके इस जगत्में भला बुरा कर्म कौन नहीं समझता! 'सर्वोच्च सोपान पर चढ़ने अर्थात् ईखरके तत्व में भक्ति किन्तु लोग ऐहिक स्वार्थ सिदिके लिये अनुचित कर्म निविष्ट रहनेको कर्म फलत्यागी बन निष्काम साधन किया करते हैं। ऐसी अवस्थामै आवश्यक है-कोई करना आवश्यक है। इसी प्रकार कर्म में प्रवृत्तिके महापुरुष शम कम का लाभ और अशम कर्म का दोष लिये निम्नश्रेणोके लोगीको सकाम कर्म भी करमा देखाता रहे। भारतवर्ष कर्मक्षेत्र है। यहां क्या चाहिये। किन्तु निम्न श्रेणोके लोगोंको सतत पाचार्य किसो वष में वुरा कम करना न चाहिये। उपदेश देनेके लिये तत्त्वज्ञानको शिक्षाका प्रयोजन कम कर (सं० त्रि.) कर्म करोति मूल्येन, कमन पड़ता है। कर्म के मुख्य उद्देश्य ईश्वरज्ञान और क-ट । कर्मणि भती। पा रा२२ । १ वेतन पर कार्य करने ईश्वरभक्तिको चित्तराधिको भूल केवल कम परायण वाला, नौकर, मजदूर। इसका संस्कृत पर्याय-भूतक, हो जीवनयावा निर्वाह करना मुथा है। भृतिमुक्. वैतनिक, वेतनोपजोवो, भरण्यभुक पोर ईश्वरम सर्व कर्म समयण करने अर्थात् यज्ञ, कर्मण्यभुक् है। २ कम कारक, काम करनेवाला। तपस्या, दान तथा अन्यान्य सत्कार्य से उसीका "मिष्यान्दै शासितकायतुर्थनधिकनेछन् । एते कर्म करा जेयाः।" स्मरण, समीको महिमाका कीर्तन और उसीको (मिताचरा) विभूतिका दर्शन रखनेसे मोक्षलाभ होता है। ईश्वरका (पु.) कर्म हिंसां करोति, क हेत्वादो ट। ३ यम । विश्वरूप और उसीकी सौम्य मूर्ति देखना चाहिये। कर्मकरी (सं० स्त्री०) कम नक्क-ट, डीप् । १ दाम, फिर ज्ञानी कर्मनिष्ठ अभावको छोड़ सोहंभाव बांदौ। २ मूलता; मरून को वैच। ३ विम्विका पकड़ता है। किन्तु ऐसी परासिद्धि साधकको मिलना लता, एक वैल। दुर्लभ है। इसलिये केवलमात्र देखरपरायण हो व्यवः । कर्मकर्ता (सं• पु०) कर्मणः कर्ता सम्पादकः, इ-तत् । सायामिका-बुद्धि खोजना पड़ती है। फिर उसमें कृत. १ कार्यकारक, काम करनेवाला। कमेच कर्ताः कार्य न होते भी कोयी क्षति नहीं आती। यह धर्म २ व्याकरणोक्त वाच्य विशेष (Passive voice)। इसमें जितना सधता, उतना ही कल्याणकर रहता है। वैष- कर्तृत्वको विवक्षामे कम हो कता होता है। यिक प्रकिञ्चितकर सुख और सिद्धि न मिलते भी दुःख "क्रियामाणन्तु यत् कम खयमेव प्रसिध्यसि । कैसे होगा ! क्योंकि इसप्रकार कर्मसमर्पण द्वारा ईश्वर सक ख गुपैः कर्नु कर्मकते ति तस्।ि (व्याकरएकारिका) मय बननेपर पवित्र सुखको इयत्ता नहीं रहती। फिर कर्ताका कम अपने निज.गुणसे खतः सम्पन्न होने अनिर्वचनीय आनन्द मिलने लगता है। इस जन्ममें पर कर्मकर्ता कहाता है। किन्तु ऐसे स्थनपर हिन्दो में योगधष्ट हो जाते अर्थात् चरम सिद्धि न पाते कियत् . कर्ताका प्रत.चिह्न 'ने' कभी नहीं लगता। परिमाण कार्य के बन्न परजन्म नशा कर्म के साधनमें कर्मकर्तृता (सं० स्त्री० ) कर्मका कट त्व, मफलको अधिक सामर्थ पाता है। कोई अनेक जन्मान्तर और कारगुजारी। जैसे-रोटी बनती है। यहां. रोटौ कोई. पूर्वार्जित कर्म के बल शीघ्र सिद्ध हो जाता है। अपने पाप बनानहीं सकती। उसका बननेवाचा कोयो द्रव्य यज्ञादि यावतीय कर्ममें ईखर-परायणताखरूप अवश्य रहता है। इसलिये रोटी कम उहरवे भी ज्ञान हो ये है।. ज्ञानयनका प्रधान. फल ऐशिक कत्वको प्राप्त होती है। भाव प्राप्त होना है। उसमें सर्वभूनके प्रति समदृष्टि । कर्मकाण्ड (संलो०) कर्मयां कर्तव्यताप्रतिपादक