कर्मवचन-कमवियाक १६१ कर्मवचन (सं० लो०) कर्मवाक्य, बौषमतानुयायो | ऐखर्यादिका उपकरण वा सुख प्रभृति शुभकर्मका और क्रियाकाण्ड रोग तथा नरकादि अशुभ कर्मका फलभोग है। हमारे कर्मवज (पु.). कम चौताद्यनुष्ठानं वचमिव शास्त्र के मतसे अधर्मके न्यूनाधिक्य अनुसार प्रथम नरश- यस्य, बहुव्री०। शूद्र । शूद्रको भौतादि अनुष्ठान भोग कर पीछे पापयोनि विशेषम उत्पत्ति होती है। वनकी भांति.कठोर लगता है। गरुडपुराणमें कैसे पापसे कैवी योनिमें जन्म लेने की बात कर्मवत् (म. वि. ) कर्म प्रास्यस्ति, कर्म-मतप, लिखी है-पतित व्यक्तिका दानग्रहण करनेसे नरकान्त- मस्य वः। कम विशिष्ट, कामकाजी। पर पापी कमि,उपाध्याय शो मारने-पीटनेसे कुक्कर,गुरु- कर्मवश (सं० त्रि.) कर्मणो वशः, ६ तत् । १ शर्म के पत्नी वा गुरुट्रव्य के लोभसे गर्दभ, माता प्रकृति अन्य अधीन, कामका मारा। (पु.) पूर्वजन्मके कर्म का गुरुजनको आक्रमण करनेसे शारिका, माता पिताको अवश्यम्भावी फल, कामका जरूरी नतीजा। यह शब्द यन्त्रणा देनेसे कच्छप, प्रभुदत्त पाहार छोड़ अन्य ट्रव्य हिन्दों में कियाविशेषण की भांति भो पाता है। किन्तु खानेसे वानर,गच्छित धन मारनेसे क्षमि,किसीके गुणमें उस अवस्थामे करणकारकका चिह्न में छिपा रहता है। दोष लगानेसे राक्षस,विश्वासघातकतासे मत्य,यव धान्य कर्मवशिता (सं० स्त्री० ) कर्मवशिनो भावः, कम ! प्रभृति शस्य चौरानसे इन्दुर, परस्त्रीगमन व्यान्न एक वधिन् तल-टाप् । कर्माधीनका भाव, काममें दवे प्रभृति, भावजायाहरणसे कोकिल, गुरु प्रभृतिक पत्नी- रहनेको हालत। यह बोधिसत्वका एक गुण है। हरणमे शूकर, यजदानविवाह प्रभृतिमें विघ्न डालनेसे कर्मवशी (सं० पु.) कर्मयो वशः वश्यता प्रस्थास्ति, कृमि,देवता पिटतोक एवं ब्राह्मणको न दे भोजन कर- कम-वश इनि। कर्माधोन, कामका मारा। नसे वायस, ज्ये घाताको अवमानना करनेसे कोच, कर्मवश्यता (सं. स्त्री.) कर्मणो वश्यता अधीनता, शूद्र हो ब्राह्मणो गमन करनेसे कृमि, ब्राह्मणी-गर्भस इ-तत्। कम की अधीनता, कामका दवाव पुत्र निकालते काहनाशक कोट, सातघ्नतासे कमिकोट कर्मवाच्य क्रिया, कर्म प्रधानक्रिया देखो। कर्मवाटी (सं० स्त्री०) कर्मणां शास्त्रोक्त तिथि- पतङ्ग वा वृश्चिक, शास्त्रहीन व्यतिको मारनेसे खर, स्त्री तथा पिशुवध करनेसे कमि, किसीका भोज्यवस्तु निमित्तीभूतक्रियाणां चन्द्रकलाक्रियाणां वा वाटीव । तिथि, चान्द्र मासका तीसवां विभाग। चोरानेसे मक्षिका, पबहरण करनेसे विड़ाल, तिल- कर्मवाद (सं० पु.) मीमांसाशास्त्र। इसमें कर्मकी हरणसे मुषिक, त हरणसे नकुल, मद्गुर मब्य • ही प्रधानता स्वीकृत हुयी है। हरण काक, मधु हरणसे मशक, पिष्टक हरणसे कर्मवादी (सं० पु.) मीमांसक, कर्मको सर्वप्रधान, पिपीलिका, जल हरणसे वायस, कास्य हरणसे हारीत स्वीकार करनेवाला। वा कपोत, स्वर्णभागड चीरानिसे क्वामि, वस्त्रादि हरण कर्मधान, कर्मवन् देखो। क्रौञ्च, पग्निहरणसे वक, वर्णक एवं शाक पनादि कर्मविघ्न (सं० पु०) कर्म का अन्तराय, कामकी चोरानसे मयूर, रतावस्त्र हरणसे चकोर, सुगन्धि वस्तु मुनाहिमत या अड़। चोरानेसे छछंदर, वंश हरणसे शशक, मयूरका पुच्छ कमविधि (सं० पु. ) कर्मणी विधि: नियमः, इ-तत् । चोरनिस षण्ड, काठहरणसे काटकोट, फल चौरानसे कर्मका नियम, कामका कायदा। चातक और ग्रहहरण करनेसे रौरवादि नरक भोग कर्मविपर्यय (सं० पु०) १ कार्यका अनुक्रम, कामका हण गुल्म लता वृक्षादि रूपमें जन्म लेना पड़ता है। सिलसिला। २ कर्मका व्यतिक्रम, कामका उचट फेर। गो सुवर्णादि हरणसे भी ऐसा ही फल मिलता है। कर्मविपाक (सं० पु०) कर्मणः धर्माधर्ममूनकस्य फिर मनुष्य विद्या चोरानेसे वहुनरक भोग योछे विपाकः परिणामः, ६-तत्। शुभाशुभ कर्मका फल, भूक और इन्धनशून्य पग्निमें आहुति डालनेसे भले बुरे कामका नतीजा । मुक्ति, वगै, परनसमें मन्दाग्नि हो जन्म लेता है। (गपु. २२८ १०) Vol. IV. 41
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