१६६ कर्मविपाक अगतिका साधारण प्रायथित्त-फल एवं सप्त धान्यपर मिष्टान्न दान, रुद्रजपमै लक्षसंख्यक पुष्पहारा विव. पश्चपल्लव तथा सर्वोषधिसंयुक्ता कृष्णवस्त्र पाच्छादित पूजा चढ़ा एकादश रुद्र नामका जप, धन, गुग्गुन अकासमूल कलस रख उसके ऊपर निष्कपरिमित सह तयांश होम तथा वरुण मन्त्रसे अभिषेक, वर्णनिर्मित महिषारुढ़ चतुर्भुज दण्डहस्त और खण धान्यदानमें ७६८ मन धान्य और वस्त्रदानमें कपूर कुण्डलधारी प्रेतरूपी पुरुष स्थापनकर पूजना चाहिये। मिश्रित पट्टवस्त्रदय देना पड़ता है। प्रत्यह पुरुषसूक्ता तथा दुग्धसे कलसमें तर्पण और विविध पुराणके मतसे भी निरोक्त रोग निस्रोत षडङ्गारुद्र नाम जप करे। यमसूक्त द्वारा यमपूजा पापसे उत्पन्न होता है,- प्रभृति, आत्मविशुद्धिके लिये गायत्रौजप और गृह १ लीवता-निरपराधिनी पतिव्रता युवती स्त्रीको शान्तिपूर्वक दशांश तिलहोमकर ब्राह्मणको तिलो- छोड़ने, किसीका अण्डकोष छेदने अथवा ऋतुमाता दक दान करते हैं। स्त्रीये सहवास न करनेपर मनुष्य नपुंसक को जन्म "रम तिलमय पिण्डं मधुसर्पि:समन्वितम् । लेता है। ददामि तो मेवाय यः पौडो कुरुते मम ॥" २ पल्प क्यसमें ही सन्तान नाश-तृष्णात जीवके उता मन्त्र द्वारा मधु तथा शर्करामिश्रित वाण नपानमें वाधा डालनेवालेका सन्तान अल्पायुः तिल-पिण्ड प्रेतरूपको दे यजमान प्रेतके उद्देश होता है। तिलपान-संयुक्त हादश क्षष्य कलस और विष्णुके उद्देश ३ दरिद्रता-जो व्यक्ति प्रभूत धनवान होते भी एक कलस प्रदान करे। प्राचार्य वरायुधधारी वरुण धर्मनिन्दक रहता और देवता, अग्नि, ब्राह्माण तथा दैवतका मन्त्र पढ़ और कलसमें जल लेकर दम्पतीको दरिट्रको कुछ दान नहीं करता,वह मृत्यु के पीछे विविध अभिषेक करें। यजमान उन्हें दक्षिणा दे और नारायण नरक यन्त्रणा भोग प्रतिदरिद्र बन जन्म लेता और जीर्ण- वलि कर ले। नारायणवलि देखो। वस्त्र पहन निरतिशय क्लेशसे जीवन बिता देता है। उक्त प्रायश्चित्त द्वारा प्रेत प्रेतवसे छूट पुन ४ वियोग-दुष्ट, दुराचार, दुष्टबुद्धि पौर नेह- पौत्रादिको प्रारोग्य सम्पद देता है। भेदकारी व्यक्ति परजन्ममें वियोग यन्त्रणा उठाता है। प्रायवित्तकै ग्रहणका अनुष्ठान-४, ५.८ वा १० संख्यक ५ नेत्ररोग-एहस्थका दीप चोराने, सती पर ब्राह्मण बैठा उनके आत्रानुसार, प्रायश्चित्तका उप नारीके प्रति सकाम दृष्ठि लगाने प्रथवा दूसरेका क्रम लगाना पड़ता है। इसके पीछे विष्णुको पूजा सम्भोग देख ललचानेसे काना या अन्धा होकर जन्म एवं कामनाके अनुसार सङ्कल्पकर ब्राह्मणों को यथा. है। शक्ति धेनु,वस्त्र, असगर तथा दक्षिणा दे साष्टाङ्गप्रणाम ६ कुनता-देवता प्रतिमा, ब्राधाप, गुरु, येष्ठ पूर्वक प्रायश्चित्त समायनकर ब्राह्मणको पूजे और पन्तको व्यक्ति, ब्रह्मचारी और तपस्खौको देख अभिवादन न ब्राह्मण खिन्ना बन्धुगणके साथ स्वयं भोजन करे। करनेसे मृत्यु के पीछे श्मशान वृक्ष वन बहुकाच विताने दानका साधारण विधि--केवलमात्र गोदानका विधान पर कुन रूप जन्म होता है। रहते सुशीला सवत्सा दुग्धवती गाभी, वृषदानमें ७ खन और शिवपादता-जता या खड़ान एक्लवस्त्र तथा काञ्चन सह वृष, भूमिदानमें दश चोरानेसे बहुविध नरकयन्त्रणाके पीछे खन्न वा छिन निवर्तन परिमित भूमि, स्वर्णदानमें शतनिष्क अथवा पाद होकर मनुष्य जन्मग्रहण करता है। पञ्चाशत् निष्क खर्ण, प्रखदानमें उपकरणसद सुशील ८विस्तता और शिवपादता-पिता, माता, प्रव, महिषदानमें खर्णायुधयुक्त महिषी, गजमहा गुरु वा नको साड़ना देनेसे विविध यमयन्वंचा भोग दान में सुवर्ण फल सहित गज, देवताके अर्चनमें लक्ष छिवहस्त्र वा विपद होकर जन्म लेते हैं। मन्त्र द्वारा पुष्पदाम,ब्राह्मण-भोजनमें सहस्र ब्राह्मणों को ८ छिन नासिकता-वृतिस्मृतिको कथामें विघ्न लेना पड़ता - .
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/१६५
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