पाती है। कर्मविपाक करने अथवा परस्त्री तथा गो प्रभृति पर रेतः डालने, है। पुरुष परस्त्री और स्त्री परपुरुषको कुटिल भाव से ब्राह्मण वा राजाका द्रय चोराने और पाश्रित व्यक्ति देखनेपर परजन्ममें विषमाक्षिरोग लगता है। वा विवाहिता पोको छोड़नेसे इस्ती, व्याघ, सिंह, ७५ गलगण्ड और गण्डमाचा-गुरुपोका कण्ठ नखो, वा दस्यु के हाथ मृत्य होता है। माने पीछे देखनेसे नरकान्तमें गलगण्ड वा गण्डमाला रोग बहुकाल केशजनक योनि धूम मनुष्यजन्ममें पस्थित उठता है। शूलादि रोग लग जाता है। ७६ नासारोग-कामाविष्ट चित्तसे ब्राह्मणकर्म ६७ मूत्रमि-विना मन्त्र अग्निमें घृत डालनेसे परित्यागपूर्वक सुगन्धि कुसुमादि ब्राह्मण देवता नरकान्तको मनुष्य जन्म ले मूकमि रोगसे आक्रान्त प्रभृतिको न दे वयं पात्राण करनेपर परजन्ममें नासारोग होता है। ३८ विद्रधि-फल अपहरण करनेसे नरकान्समें ७० दुग्धहीनताप्रपर बालकके लिये दुध चाते वानरजन्म मिलता है। फिर मनुष्यजन्ममें विद्रधि भी जो स्त्री उसको नहीं देती, वह प्राणान्तम ४ वत्सर रोग उठता है। सर्पिणी पौर ४ वर्ष कच्छपी रह पीछे मनुष्यजन्म ६८ अपची और वातग्रन्यि-विशाल वृक्ष, पर्वत, लेनेपर दुग्धहीन निकलती है। नदीतीर, वल्मीकान, गोष्ठस्थल, गोयह वा देवालयमें, ७८ स्तनविस्फोट-प्रन्य पुरुषको जो खो खोय भूत्रत्याग और निष्ठीवनादि निक्षेप करनेसे बहुविध स्तन देखाती, वह नरकान्तको पूनर्जन्म ले स्तनविस्फोट नरक यन्त्रणा उठा परजन्मको अपची तथा ग्रन्थिरोग रोगसे
- भोगते हैं।
७८ वेश्याव-खामोके मरनेपर जो स्त्री पर- ७. शिरोरोग-तीर्थस्थानमें विहित कार्यादि पौर पुरुषसे दृष्टि लगाती, प्राणान्तको वह तम लोहमय गुरु प्राण प्रतिको देख प्रणाम न करनेसे नर. पुरुष पालिङ्गन प्रभृति यमयन्त्रणा उठा परनन्स में देखा कान्तपर दश वत्सर भालुकयोनि तथा तीन वर्ष बन जाती है। मेषयोनि भोग मनुष्य जन्म मिलते शिरीरोगाक्रान्त ८० वाघियं-धर्मचिन्तासे मुख फेर पितामाता, होना पड़ता है। ब्राहाण और तीर्थ प्रमृतिको निन्दा उड़ानसे परजन्ममें ७१ नेत्रहीनता-परस्त्रीके प्रति कुटिल दृष्टि डालने वाधियं रोग लगता अर्थात् कुछ सुन नहीं पड़ता। अथवा गुरु वा ब्राह्मणके चक्षुमें पाधात मारने ८१ नेमरोग-नित्य क्रियासे वरिभूत हो भोजन प्राणान्तको विविध नरकयन्त्रणा उठा जन्मान्तरमैं | करने पर प्राणान्तको काष्ठोपजीवी और वायस, जस नेत्रहीन रहते हैं। ले परजन्ममें लेमरोगाक्रान्त होते हैं। - ७३ रावान्धता-कामबुहिसे परस्त्रीके प्रति दृष्टि ८२.स्तशूल-सन्ध्यादिविहीन ब्राह्मण जीवनान्त- डालने, नग्न स्त्रीको देखने किंवा गोहिंसा तथा.विप्र को एक वत्सरकाल कर और पारावतयोनि भोग हिंसा दर्शन करनेसे रावान्ध; दृष्टिक्षीणता, दिवान्यता मनुष्यजन्म होने पर हस्तशून रोगको वेदना उठाता हैं। पौर अवंददृष्टिरोग लगता है। ८३ योनिरोग-जो स्त्री रमणकाल पतिको सन्तोष ७३ दृष्टिकोणता-उदय, अस्त और मध्य समय नहीं पहुंचाती अथवा अन्यका भोज्य वस्तु चौराती, सूर्य के प्रति दृष्टि.चलाने अथवा :प्रचि अवस्था में सूर्य, वह १४ वत्सर उष्ट्रयोनि भोग मनुष्य-जन्मे योनि- चन्द्र, नक्षत्र, प्राण, अम्नि एवं गोको भोर देखनेसे रोगका दुःख पाती है। परजसको दृष्टिकोणतारोग होता है। ८४ प्रदर-सुधात पतिको न खिला जो स्त्री प्रागे ७४. विधमारिता.मौर विरूपाक्षिता-पुत्रौके प्रति खाती, किंवा तथा पशुहत्या गाती पथवा भान्य वस्तु जार दृष्टिं लगानसे मनुष्य परजममें विरुपाची होता। चौराती, प्राणान्तको वह मद्यपानोल नरक भोग दय