होती है। १८ कपोतपालिका-कपोताक्षनदी १३८ । कयोतको भांति पादयुक्त, जो कबूतरको कपोतवल्ली (सं. स्त्री०) कपीतवर्णा वही, मध्यपदसोग तरह पैर रखता हो। कपोतपालिका (सं० स्त्री०) कपोतान् पातयति, बाधी, एक बूटी। युक्तप्रदेश में यह बम्बा किनारे कपोत-पाल-णिच-खुल् स्वार्थ कन्-टाए पत इत्वम् । कपोतवाण (सं० बी०) कपोतपाद इव यो वाणस्तहत् विटा, कावुक, दर्वा, पाशियाना, चिडियाखाना। पाकाग यस्य । नलिका नामक गन्धद्रष्य, एक कपोतपाली (सं० स्त्री०) कपोतान् पासयति, कपोत- खुशबूदार चीज़। पाल-णि-पण-डोप्। कपोतपालिका, कावुक, दर्वा, | कपोतविष्ठा (म० स्त्री०) कपोतपुरोष देखी। कबूतरोंकी छतरी। कपोतहत्ति (सं.वि.) कपोतानां येमो वृत्तिरिव "चिक्र'सया छविमपविर्ष : कपोवपाचौषु निकेतनानाम् ।" (माघ ) | वृत्तिर्यस्य बहुव्री०। १ सच्चयहीन, इकट्ठा न करनेवाला, कपोतपुट (सं० लो०) प्रौषधपुटमेद, दयाको एक जो कवूतरको तरह रोज कमाता-खाता हो। (बी०) तह। जो पुट प्रष्टसंख्यक वनोपलसे खातमें दिया २ सञ्चयशून्य जीविका, जिस रोजगारमें कुछ जोड़ जाता, वही कपीतपुट कहाता है। (मावप्रकाश) न सकें। कपोसपुरोष (सं० पु०) पारावसविष्ठा, कबूतरका | कपोतवेगा (सं० स्त्रो०) कपोतानां वेगो गतिरिव बीट। यह व्रणदारण होता है। वेगः द्रुत-वृषियस्याः, मध्यपदयो । ब्रायोनामक कपोतरान (सं० पु.) पारावतप्रभु, कबूतरोंका राना महानुप, एक झाड़। या सरदार। कपोतव्रत (सं० वि०) १ कपोतको भांति कष्ट पाते कपोतरतस् (सं० पु०) प्रवरमुनि विशेष । भी मौनधारण करनेवाला, जो सताया नावे भी कपोतरीमा (सं० पु.) १ राना उशीनरके पुत्र। कबूतरको तरह बोसता न हो। (पु.) २ कपोतका कपोतरूपी अनिके वरसे इनका जन्म हुवा था। व्रत, कबूतरका प्रहद। मौनधारणपूर्वक ताड़नादि (भारत, वन १६६ च०) २ यदुवंशीय कुकुह पसिके पौत्र । सहन करना कपोतव्रत कहता है। (हरिवंश प.) कपोतसार (संली.) कपोतवर्ण इव सास कृष्ण- 'कपीतलुब्धकीय (म. ली.) कपोतं तुब्धकच पधि- वर्णो यस्य, बहुव्री.। स्रोतोऽधन, सुरमा। शत्य तो ग्रन्यः, कपोतलुब्धक-छ। महाभारतके | कपोतहस्त (स.ली.) उपासनाके समय हाय अन्तर्गत पाख्यायिका विशेष। इसमें कपोत और जोड़नेको एक रीति । लुब्धकके गल्पच्छलसे उपदेश दिया है-महस्यको | कपोतहस्तक, पोतहत देखी। प्राण देकर भी अतिथिसत्कार करना चाहिये। कपोताक्षनदी-बङ्गालकी एक नदो। चलित भाषाम कपोतवका (स. स्त्रो.) काकमाची, केवैया । इसे कपोतक कहते हैं। नदिया जिले में चन्द्रपुरके कपोतवक्ता, कपोनवका देखो। निकट माथाभांगा नदोसे यह निकली है। उत्पत्ति- कपोतवसा (सं० स्त्री.) कपोती वञ्चते प्रतायते ऽनया, स्थससे थोड़ी दूर पूर्वको भोर घस नदिया और कपोत-वन्च् करणे घन, कुलं टाप् च । बानी, एक यशोरके मध्य यह दहियामिमुखी हो गयी है। बूटी। ग्रामी देखो। इस स्थानपर यही नदी नदिया, चौवीसपरगना कयोतवर्ण (सं. वि०) धसर, चमकीला भूरा, पौर यथोर जिलको सीमाको निर्देश करती है। कबूतरका रङ्ग रखनेवाला। चौबीसपरगनेके प्राथामुनीसे ५ मौत पूर्व 'मरीशय कपोतवर्णा, कपीतवों देखो। गङ्गामें कपोताच नदी जा गिरी है। गङ्गाम कपीतवर्णी (मस्त्री०) कपोतस्य वर्ण इव वर्यो यस्याः, कलकत्तेसे नौका पाया-बाया करती हैं। उस गङ्गाके गौरादित्वात् डौष । सूम:ता, शेटी इलायची। सङ्गमसानसे २ मोल दक्षिए इससे पूर्वमुख यमोर 1
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