२६२ कलकत्ता रोपि द्रविधान्येव प्राप्य गोविन्दम्पतिः । होता है। सम्भवतः किलकिला ही कलकत्तेका अति प्रामा तेनैव भूपेन मृतिकाभ्यन्तर निमि। प्राचीन नाम है। किलकिलाके अपनंशी ही आईन काधनकर्ष पूरितापालभ्या देशमुरैरपि १०१ प्रकवरी प्रभृति ग्रन्थमें कलकता, कलता, कलना, कलकत्ता, कलकत्ता, कलिकता आदि शब्दको उत्पत्ति चतुःपटिस सकय बचिभिः पूजन छतम् ॥ १०॥ गोवनडया विशवया तेशोहद्या हि भूमिप। है। मालूम पड़ता, कि भाषासे लिखे मित्र भिन्न पाइन इ-अकबरी ग्रन्यमें पाठान्तर चलता है। सुतरां वभूव गोविन्ददनो वाई छपवणे मशन् ॥ १०६२ भागीरथीपूर्व तटे पुरोवरनहेतवे। किलाकिना शब्द भाषान्तरसे लिखते कलकला, वास्तुयाग' हिजान् नोवा चकार वामत" कलकता, कलकत्ता हो सकता है। हे नृपयेष्ठ ! अब चरभूमिको कथा सुनिये । काली गोविन्दपुर नामकी उत्पत्ति। देवीके निकट गङ्गाके पूर्व तट पर ४४०० कत्यष्दकों कलकत्तेके भूतपूर्व कलकर ष्टोडेल साइबके सिन्धुसङ्गम ( गङ्गासागर ) तीर्थ यात्रा करने गोविन्द मतमें गोविन्दराम मित्रके नामसे गोविन्दपुर बना है। दत्त राजा पाये थे। वह सकुशल तीर्यसे चोट पड़े। फिर बड़े बाज़ारके सेठ बसाकोंके कथनानुसार यहां फिर स्वपके छलसे काली देवीने उन्हें नौकामे की उनके इष्टदेव गोविन्दजीका मन्दिर था। उसीसे | आदेश दिया,-" हे राजन् । मैरी पानासे तुम इस स्थानका नाम गोविन्दपुर पड़ गया। यह दोनों प्रकर्षणपुरीको चलो और वादररमा पृथिवो में बया. मत विशेष युष्ठिसङ्गत मालम नहीं होते। प्रथमतः दिक कटा मेरे निकट एक बड़ी पुरी स्थापन करो। गोविन्दराम मित्रके बहुत पहले गोविन्दपुर नाम नहीं तो तुम्हारा प्रमाल होगा।" काली देवीको विद्यमान था । हितोयतः यदि गोविन्दजीके नामसे बात मान राजाने गङ्गातटके अन्तर पर बड़ी बसती गोविन्दपुर निकलता,तो सकल प्राचीन ग्रन्योंमें गोविन्द बनायो। पारीन्द्र ग्रामसे सब धनरत्न मंगा सुरसरितके पुरके साथ गोविन्दनीका उल्लेख अवश्य मिलता। तटपर लोग बसाये गये। देवीके पृष्ठ पर दो हद कविराम विरचित दिगविजयप्रकाश नामक अन्यमें रखे थे। उनके पादेशसे इलोंके नीचे खोदने पर गोविन्दपुरके नामकरण सम्बन्ध पर नो विवरण मृत्तिकाके अभ्यन्तरमें काञ्चनका ढेर देख पड़ा, जो मिला, उसे नीचे लिखा है,- देवों और असुरों को भी पलभ्य था। भूरिभूरि द्रव्य "इदानी' नृपशाह न चाभूमो कथा । पानसे प्रसन्न हो गोविन्द भूपने चतुःषष्टि बलि कालीदेयाः विधीच गायां प्राचाके पटे॥१०५२ द्वारा पूजन किया। गोन, वित्त और तेज बढ़नेसे गोविन्ददचो राना च कलिवेदाब्दसहम गे। गोविन्ददत्त महान् बर्धिष्ठ प्रवर भूमिप बन गये। सिन्म मतोयानाकर पा समागः ॥१०५२ फिर उन्होंने पुरीके वर्धन हेतु भागीरथीके पूर्व तट पर गोविन्ददनभपाल वान मन्यागत मम्। माझीको बोलाकर वास्तुयाग किया। कालीदेवी की नौकायान्तमुवाच ॥१०५७ कविरामको उता वर्णनासे समझ पड़ा, कि राजा प्रकर्ष गोपुरी' राजन् पागच्छ हि ममाधतः । वादर रसा पिसाव वेदयित्वा तपादिकम् ॥ १०५५ गोविन्ददत्तसे इस स्थानका नाम 'गोविन्दपुर' चला था। पुर.........महलों मसकारातः । सूतानुटो। मास्यामि ए भूपाल ने कप्तान चेदपि १०५६ पहले सूतानुटीके सम्बन्धमें बहुत सी बातें कर चुके कालोदवा वची शाला गढ़ायाय वटाकरे। हैं। यहां अगरेजों के प्राने से पहले तन्तुवाय (जुलाई) वसनि भूयसो सब चकार हि महान्दिनः । १०५० सूतका गोला ( नटी वा लुटी) बना (उस समयको पारीन्द्र ग्रामान सर्वाय द्रविणानि महीपनिः । सूतानुटोके) बाजार में (वर्तमान इटखोले के पास) • पानयित्वा च वसति तवान् सुरमरिनट १.५ वैचते थे। इसी बाबारका नाम सूतानुटीका हाट लाली बिस्कन्ध यतः देयाः पृष्ठे पत। रक्ष। बाज़ार के सामनेही सूतानटी घाट था। यहां यदादेशन बम रखे.......... १०५९
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/१९१
दिखावट