. २ कपिल हत्तिः स्वतः नहीं भाती, वेदविहित कर्ममें प्रवृत्ति फिर उभरने नहीं पाती। उस समय पुरुष लगर्नेसे उत्पन्न हो जाती है। ऐसी भक्ति होनेपर समझता इसका भोग मुक्त हो गया। पुरुषको क्रमसे मुक्ति सी मिलती है। जो ईखरको पात्मवत् जन्मजन्मान्तरमें अध्यात्मरत ही जब ब्रह्मलोकप्रासिक प्रिय, पुत्रवत् स्नेहपान, सखा-जैसा विश्वासभाजन, विषयमें भी वैराग्य प्राता और भगवान के प्रति गुरुको शांति उपदेष्टा, बन्धुकी तरह हितकारी और ऐकान्तिक भक्तिमान् वननेसे पामतल देखाता, इष्टदेव सदृश पूज्य समझता अर्थात् जो सर्वतोभावसे तब वह कैवल्यधाममें देहातिरिक्त सदाययखरूप अगवानका भजन करता, उसका काल कुछ बना परमानन्द पाता है। फिर लिनशरीर नाश हो नहीं सकता। जानेसे आनन्दलाभ कर पुनर उसको निवटना “प्रतिलोम बुद्धिविशिष्ट आमा हो पुरुष है। वह नहीं पड़ता। आत्मज्ञानके बलसे सकल मिथ्या ज्ञान पुरुष अनादि, निर्गुण और प्रकृतिसे भिन्न है। विनष्ट हो जाता है।" पुरुष केवल साक्षीखरूप होता है। वह स्वयं प्रकाश कपिल मुनिने अपने सांख्यसूत्र में भी देखाया है- पाता और यह विश्व उसके साथ मिलजुल प्रकाशित वस्तुमात्र सत् है अर्थात् किसी वस्तुका उद्भव हो जाता है। वही पुरुष अपने निकट विष्णुको विवा विनाश नहीं। वस्तुको आविर्भाव होनेसे हम 'शक्तिरूपा अव्यवगुणमयी प्रकृतिको लोलावशतः देख पाते और तिरोभाव होनेसे उसके लिये पछताते पहुंचने पर अवज्ञानमसे ग्रहण कर लेता है। है। पाविर्भावके पूर्व भी वस्तुको सत्ता स्वीकार करना प्रति अपने गुणसे समानरूप विचित्र प्रजासृष्टि पड़ती है। ऐसा न मानने पर एकमात्र उपादानसे करती है। निनमें प्रविशेष प्रथच विशेषका जो सकल काय उत्पन्न हो सकते हैं। असत्कार्यवादि- आश्रय प्रधान पाता, वही प्रकृति कहाता है। फिर मतमें उपादान मृत्तिकाके साथ घटके सम्बन्धको प्रधान त्रिगुण रहता, अतएव अव्यक्त अर्थात् अकार्य भांति पटका भी सम्बन्ध नहीं लगता। सम्बन्ध ठहरता है। सुतरां वह न तो महत्तत्त्व और न रहते भी. जैसे मृत्तिकासे घट वनता, वैसे ही न जीवनस्वरूप नित्य अर्थात् जीवको ही प्रकृति पट भी बन सकता है। किन्तु उत्पत्तिके -पूर्व है। प्रधानके कार्यखरूप चतुर्विंशति पदार्थ हैं। कार्यको सत् स्वीकार करते मृत्तिकासे पटोत्. यथा-भूमि, जल, अग्नि, वायु एवं प्राकाश पञ्च पत्तिको प्रापत्ति पड़ नहीं सकती। क्योंकि मृत्तिकासे महाभूत, गन्धतन्मात्र, रसतमात्र, रूपतन्मात्र, सर्थ फ्टका कोई सम्बन्ध नहीं। जिसके साथ जिसका तन्मान तथा शब्दतथ्यात्र पञ्चतन्मात्र, चक्षु, कर्ण, कोई विशिष्ट सम्बन्ध नहीं रहता, उससे वह कैसे निद्धा, धाण, त्वक, वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपजता है। घटके साथ उत्पत्तिसे.पूर्व भी मृत्तिकाका सपस्थ दश इन्द्रिय, मनः, बुद्धि, अहङ्कार और सम्बन्ध होता है। इससे मृत्तिकासे घट बन जाता चित्त चार अन्तरिन्द्रिय । अन्तःकरणके अन्तरिन्द्रिय है। यदि उत्पत्तिसे पूर्व कार्य असत् ठहरे, तो ठहरते भी हत्तिभेदये उक्त चार प्रकारका प्रभेद पड़ मृत्तिका रूप सत्कारणके साथ असत् घटरूप कार्यका सम्बन्ध बंध न सके। सुतरां असत्कार्यवादियोंके जाता । यह चतुर्विशति तत्त्व सगुण ब्रह्मक सवि- मतमें घटस सर्गशून्य मृत्तिकासे घटोत्पत्ति होनेकी वेधका स्थान हैं। एतद्भिन्न काल पञ्चविंश तत्व है। "निष्काम धर्म, निर्मल मना, भक्तियोग, सख भांति असम्बन्ध मृत्तिकासे पटकी उत्पत्ति होने में दर्शिज्ञान, प्रबल वैराग्य, तपोयुक्त योग एवं दृढ़तर क्या वाधा है। पथवा ससर्ग न रहते मृत्तिकासे पामसमाधि द्वारा पुरुषको प्रति क्रमशः काष्ठको पटोत्पत्ति होनेकी भांति घट भी कैसे बन सकता मीति जस शेषको तिरीड़ित हो सकती है। है! उस दोनों विषय सत्कार्यवादके स्थापनको प्रधानतम युक्ति हैं। पुरुषको प्रहरि इसमकार एकवार जस आनेसे -
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