२०२ कलवार-कलविङ्क हुवा है। इसी प्रकार पूर्वोक्त कई निषिद्ध विषयोंके करते हैं। केवल उत्सर्गित स्तन्यपायो शूकरगावक तारतम्यसे अन्यान्य श्रेणियोंका विभाग कल्पना किया खाया नहीं मृत्तिकामें गाड़ा जाता है। पांच- जाता है। बियाहुत और खरिदहा अपने वंश, माता पोरोका प्रसाद मुसलमानों को भी बांट देते हैं। महको गोष्ठी, पिटमातामहको गोष्ठी वा पितामहके पूजादि और पौरोहित्यादिका कार्य एक ये गोके मातामहको गोष्ठी में विवाह नहीं करते। यही चाल ब्राह्मण करते हैं। बनौधियोंके पुरोहित कनौजिये जेसवारों में भी देख पड़ती है। ब्राह्मणों की भांति सन्मानाई हैं। नववार गवको बियाहुत तथा खरिदहा ५से १४, जैसवार से जलाते हैं। त्रयोदश दिन थाह होता है। वनौधिये १०, और बनौधिये ७से १४ वत्सर तक कन्याको ७म वर्षसे न्यून मृत सन्तानका शव गाड़ देते हैं। विबाह देते हैं। किन्तु कन्याको अपेक्षा वरका नोविका पौर पवस्था-शराव बनाने का व्यवसाय हो वयस कयी वत्सर अधिक रहना आवश्यक है। इनकी मून जीविका है । बनौधियों, देयवारों पुरुषका विवाह सब श्रेणियोंमें से १४ वर्ष तक और खालसावों को छोड़ अन्यान्य येणौके कन्दवार हो जाता है। विवाहमें हिन्दुस्थानी बनियों को दूसरा व्यवसाय भी चलाते हैं। अधिकांग वषिकार्य रौति रहती है। "सिन्दूरदान के. पीछे विवाह किया करते हैं। वाणिज्याटि चलानेवाचे बोगोंको सम्पर्ण होता है। ही कलवारीमें सम्भ्रम मिलता है। छोटे-नागपुरमें विवाहसे पहले 'घर देखो 'वर देखो' और भक्त श्रेणीके कलवार व्यवसाय करनेसे समधिक सम्भ्रान्त 'पानबांटो' तीन कुलाचार हैं। केवल वनौधियों यह हैं। किन्तु उनमें विलासिता देख नहीं पड़ती। तीनों आधार देख नहीं पड़ते । वरके पिताको सामान्य मजदूरों को भांति वह भी खाते पोते हैं। मर्यादाको रक्षाके लिये कुछ नकद रुपया देना पड़ता यह अनाचरणीय हैं। ब्राप्रणादि कलवारोंका, है। इस प्रथाको 'तिलक' कहते हैं। २१) रु.से स्पष्ट जल व्यवहार नहीं करते। प्राजकन्च अधिक अधिक तिलक नहीं चढ़ता। कलवार एकसे चार लोग खेतीवारीमें लगे रहते हैं। कारण गवरनमिण्टने तक विवाह कर सकते हैं। प्रथमा पत्नौके वन्ध्या होने इनका जातिगत व्यवसाय अपने हाथ में ले लिया है। पर ही ऐसा पत्न्यन्सर पड़ता है। सभी श्रेणियों में सर्वापेक्षा चम्पारन और मुजफ्फरपुर लिलम विधवाविवाह चलता है। व्यभिचारिणी होनेसे यह कनवार पधिक रहते हैं। पनीको छोड़ देते हैं। कलविङ (सं० पु. ) कलं मधुरास्फट बहते रोति, धर्म-प्रायः कलवार वैष्णव होते है। फिर भी अन्यान्य कल वशि-अच् पृषोदरादित्वात् प्रत इत्वम् । १ चटक- प्रामदेवतावीको पूजा किया करते हैं। वियाहुत पौर पक्षी, गौरवा। इसका संस्कृत पर्याय-कुलित और खरिदहा श्रावण शलाके दो सोमवारीको शोखानामक कालकण्टक है। भावप्रकाशने कलविको भौतर, देवतापर चावल और दूध चड़ाते हैं। फिर उसी | सिग्ध, स्वादु, शुक्र एवं कफकारक और मविपात समय (श्रावण शुक्ल) वुध तथा वृहस्पतिवारके .दिन नाशक कहा है। स्टइचटक अतिशय शुक्रकारक 'काली' एवं 'बन्दी'को छागल. तथा मिष्टान और महल है। २ कलिङ्गक वृष, कलौंदेका पेड़। ३ का, वारके दिन 'गोरया' देवताको स्तन्यपायो शूकर शावक ४ खेतचामर, सफेद चंवर । ५ त्वष्टाक पुत्र एवं मद्य उत्सर्ग किया जाता है। श्रावण शक्त शनि विखरूपमा एक मस्तक। भागवत में लिखा है,- वारके दिन जैसवार पांचपोर' पर और भाद्र कृष्ण किसी समय इन्द्रने ऐखर्यके मदमें मत्त हो मरा. एकादशी तथा माघ शुक्ला एकादशी एवं वयोदशोको चार्य हस्पतिकी अवमानना की थी। इससे वृहस्पति बनौधिये 'अनदेव' पर पिष्टक एवं मिष्टव चढ़ाते अन्तहित हुये। फिर असुरोंने देवताओं को बहुत B सकस-निवेदित ट्रष्य कशवार स्वयं भोजन सताया। प्रधाने त्वष्टुपुत्र विश्वकपको पौरोहित्यमें धब्बा।
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