पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२०२

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गगरी। तौला कलविङ्कविनोद-कलस २०३ . सगा पसुर संग्राममें उतरने के लिये उपदेश दिया।। कलशो ( सं० स्त्रा०) कलशि-डोप । १ जनपावविशेष, देवगण भी तदनुसार उन्हें पुरोहित बना कार्य सस्मा. २ पृश्निपणी, पिठवन । ३ तीर्थविशेष । दन करने लगे। किन्तु विश्वरूप पितामह-वंशके | कलशोकण्ठ (सं० वि०) कलस्याः कण्ठ व कण्ठः 'प्रति स्वाभाविक सेहवशतः छिपकर असुरोंको यज्ञ अस्य, बहुब्री। १ कलपीक कण्ठ की भांति कण्डयुक्त, भाग दे देते थे। क्रमशः इन्द्रको यह बात अवगत सुराहोदार गरदनवाला। (पु०.) २ ऋषिविशेष । हुयो। उन्होंने क्रोधमें विखरूपके मस्तक काट डाले। कलशोपदी (सं. स्त्री.) कत्तयोशो भांति पद रखने- उनके तीन मस्तक थे,-कपिचर, कलविङ्क और वाली, जिसके घड़े-जैसा पैर रहे। तित्तिर । जिस सुखसे वह सुरापान करते, उसे कलयोमुख (सं० पु.) वाद्ययन्त्र विशेष, एक वाजा। कलाविष्टः कहते थे। (प.) तीर्थविशेष । इसका मुख कलशोको भांति होता है। ७ पारावत, कबूतर।' ८ ग्रामचटक, गांवका गौरवा। कलशीसुत (सं० पु.) कलथ्याः सुत इव कलशोतः अण्णचटक, काला गौरवा। उत्पनत्वात्। अगस्त्य मुनि। अगस्ता देखो। कलविङ्गविनोद (सं० पु. ) नृत्यको एक चाल, कलशोदर (सपु०) कलय इव उदरमस्य, बहुव्री०। नाचका एक ढंग। इसमें मस्तकपर दोनों हाथ ले १दानव विशेष। (हरिवंश २४० ५०) (वि.) कलशको जाकर घुमाये जाते हैं। फिर उन्हें पसली पर भाति उदरविशिष्ट, जिसके धड़े-जैसा पेट रहे। लगाकर नीचे ऊपर चलाते है। कलस (पु.) केन जलेन लसति शोमते, क-न- 'कलश (सं० पु.) कतं मधुराव्यशब्द शवति जल- अच्। १ कलम, घड़ा। २ द्रोण परिमाण, सेरको ३ कुम्भ कालिकापुराणमें लिखा है- पूरणसमये प्राप्नोति, कल-शु गती । वालाधार- विशेष, घड़ा। इसका संस्कृत पर्याय-घट, कुट, निय, अमृतसङ्गाइको देवासुरके सागर मयते समय विख- कलस, कलसि, कलसो, वालधि, कलशो, कुम्भ और कर्माने देवोंकी कलासे नौ घर पृथक् पृथक् बनाये करीर है। तन्त्रसारोक्त कलावतीके दीक्षा-प्रकरणाने थे। इसीसे घटका नाम कलस पड़ा। निर्वाणतन्त्र में -कलशका परिमाण इस प्रकार लिखा है,-"कलश मी कहा है,- व्यासमें ४० अङ्गुलि और उच्चतामें सोलह अङ्गुति रहना "कला कलां महीला तु देवानां पित्रकर्मणा । निर्मितो ऽयं स यस्मात् कलसम्म कष्यते ॥" चाहिये। मुख पाठ पङ्गुलि होता है। फिर ३६ अङ्गुन्धि विस्तार और उच्चताविशिष्ट कलशको कुम्भ ४ नागविशेष, एक सांप। ( महाभारत) ५ मन्दिर- कहते हैं। यह सोलह या बारह पॉलिसे कम रहना का शिखरमण्डल, इमारतको चोटीका कंगूरा। चाहिये।" २ द्रोणपरिमाण, ८ सेरको तौल । ६ काश्मीरके एक राना। इनका अपर नाम रणादित्य -कलशदिर (वै० पु० ) कलशस्य दौर्दरणम्, कलय-दृ था। यह तुझके पुत्र रहे। ८८५ शकके श्रावण भावे किम् । याजिक कलम विदारण, पूजाके घटको मास तुकने इन्हें राजा बनाया। राजा होते ही यह तोड़ फोड़। पिताको कुटिल दृष्टि से देखने लगे। फिर इन्होंने • कलथपोतक (सं.पु.) सर्पविशेष, किसी नागका नाम । तक पर बड़ा अत्याचार किया था। किन्तु मन्त्री उक्त अत्याचार सहनसके। अन्ततः प्रधान मन्त्री हल- "चार्यश्यीयमय व मागः कलशपोतकः।" (भारत, पादि २६ १०) धरने पिताको सिंहासन पर बैठाया। फिर कलस कलशि (सं० स्त्री०) कलं शरीरमालिन्यं श्यति पिताके अधीन रहने लगे। भण्ड लम्पट इनके सहचर नाशयति, कल-यो नि । १ पृश्निपर्णी, पिठवन। थे। क्रमशः उनके सहवास चरित्र इतना बिगड़ा, कल-शृ-डि । २ घट, घड़ा। कि इन्होंने अपनी भगिनी और तनयाका सतीत्व नष्ट "कलमिमुदधिग्रवौं बलवा थोडयन्ति" (माघ) किया। वह राजा इनके पाचरणसे अत्यन्त व्यथित