पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२५६

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कथाघात-बयेरुक कमाघात (पु.) कथन कथया वा पाधातः, ५ पासन विशेष, एक वैठक। ३-सत्। . कथाका पाघात, चाबुक्की मार। बपियूषवण (वै० को•) व्याधान वस्न, तकियेका गिचाफ। कयात्रय (सं० को०) कथाना कयाघातामां बयम, वाली । तीन प्रकारका कथाघात, तीन तरहसे कशिश (फा. बी.) पाकर्षण, खींच। चाबुकको मार। यह मृदु, मध्य पौर निहुर होता | कयोका (वै स्त्री०) कश वाहुतकात् ईकन्टाम्। है। पम्सोंको साधारण दण्ड देते समय मृदु पाघात प्रसूता नकुती, व्याई हुई नेवली। लगाते है। किन्तु उपवेधन, निद्रा, स्खलन, दुष्ट-चेष्टा, कशीदया (भा• पु.) मयुरका कूटीपायविशेष, पखिमो (घोड़ी) देखनेका भौत्सुक्य, गर्वित रेषा कुस्तीका एक पेंच। इसमें खेलाड़ी अपनी जोड़की रव (जोरको हिनहिनाहट), बास, दुरुत्थान, विमार्ग गर्टनपर हाथ रख वाम पदसे उसका दक्षिण पद गमन, भय, शिक्षात्याग, चित्तधम प्रभृति पपराधों में अपनी भोर खींच लेता और उसे दक्षिण करसे पकड़ मध्य पौर निष्ठुर पाघात देना पड़ता है। अपराध गिरा देता है। विशेषमें पाघातका स्थान भी पृथक् है। वास एवं कशीदा (फा• पु०) सूचिकर्म विशेष, कढ़ाव। इसमें भयमें गलदेश, शिचात्याग तथा चित्तविश्वममें अधर, वस्त्रपर सूची तथा सूत्रसे नानापकार क्वत्रिम पत्रपुष्प गर्दित षारव एवं पश्विनी देखनेके पौवसक्यमें बाहु बनाते हैं। तथा स्कन्ददेश, उपवेशन एवं निद्रामें कटिदेश, दुर्व्यव- कशेरक (सं० पु.) एक पश्च। (मारत २ । १. १०) हार तथा विमान प्रधानमें मुख, सूखलन एवं दुरु- कशेरु (सं० पु०-को.) के देहे गीर्यत, . क- स्थानमें अधन और कुण्ड प्रकृतिमें सर्वस्थानपर कशा एकादेशच । स्थएरावास्य । उप १ । १०१ पृष्ठाखि, मारते हैं। रोद, पाठको बड़ी इउडी। कं जलं वात- वा गुणाति । कथारि (सं० बी०) यज्ञकी एक वेदी। यह यन्त्र २ खनामख्यात तणविशेष, कसेरू। इसका संस्कृत स्यसमें उत्तर दिक रहती है। पर्याय-कशेरुक, कसेर, कमेरुक और कशेरुक है। कमाई (स० वि०) कशा पति, कशा प्रह-अण् । हिन्दीमें कसेरू, वंगलामें केशर, मराठीमें कचेर, पना- कश्य, चावुक लगाने लायक। बगावय देखो। बौमें दिला और तेलगु (तिसतो )में गुन्द-तुत गही कशावान् (सं० वि०) कमा लिये हुवा, जो चाबुक कहते हैं। (Sripus dubius) रखता हो। कशेरु एक प्रकारको घास है। यह समय भारतमें कशिक (संपु०) कमति हिनस्ति सर्वम्, कश सरोवरों और नदियोंके किनारे उत्पन होता बाहुलकात्क। नकुल, सांपको मार डालनेवाला इसका ग्रन्थिल मूल जातिफन (जायफन) सदृश रहता नेवला। और ऊपरसे कृष्णवर्ण देख पड़ता है। यह सोचन- कधिकपाद (सं.वि.) कशिकस्य पादाविव पादौ ग्रहणी और विशूचिका रोगमें देशीय वैद्य यस्य, बडुनी। इस्त्यादित्वात् नान्यचोपः। इसे भौषधको मांति व्यवहार करते हैं। यह रोग खोपोऽकरव्यादिभ्यः । पा।।४।१८। नकुलकी भांति पद न लगनेके लिये भी चषाया जाता है। विशिष्ट (जन्तु), नेवलेकी तरह पैरवाला (जानवर)। शीतकालमें कशेरु खोद कर खाया करते हैं। कशिका (सं० स्त्री०) चमकशा, चमड़ेका चाबुक । इसके उपरका छिलका छोच डाला जाता है। कोई कथिषु (सं. पु.) कति दुःखं. कसते वा, मृग कोई कसेरुको उबालकर भी खाता है। बंडासमें यादिलात् - नियासनात् साधः । भव, पनान । यह देवतावों पर चढ़ता है। कशेरु खाने में मधुर और २भाकादन, कपड़ा। ३ भता, भात । ४.अय्या, पलंग। शीतलं है। यह दो प्रकारका होता है-राज- सम्बोषितौ दिमियोः प्रयास:।" (भागवत रा.) कसैकक और चिचोड़। बई कशेषको राजकपरक Vol. IV. 65 पादस्य ॥