कषाय-कषायपाक 'करते वक जानकी हालत) मन्यास्तम्भ (गखा जकड़ पर्यात् जीबके सुख दुख पादि अनेक प्रकारक जानेको हासत), गावस्फुरण, स्रोतअवरोध, यावत्व धान्यको उत्पन्न करनेवाले, तथा जिसकी संसाररूपी (भूरायन ), एकनाथ, पाकुचन, आक्षेपण प्रभृति मर्यादा अत्यन्त दूर है ऐसे कर्मरूपी क्षेत्र (खेत)का वायुविकार बढ़ते हैं। जो कर्षण करता है उसे कषाय कहते हैं। दूसरी २ काथ, पाचन, जौशांदा, पौटी, कादा। इसका प्रकार का धातुसे मो इसकी व्युत्पत्ति बताते अपर संस्कृत नाम नियुहै। इसके पांच भेद है मम्मचदेममयपरिपत्रक्लाहचरपरिणाम। -खरस, करक, कथित, शत और फाण्ट । चादन्ति वा कपाया चठमोखासा खुदोगनिदा । २८५ ऋषित, मत और फाएदेखो। लीवके सम्यक्त्व, देशसंयम, सकलसंयम और यथा- ३ निर्यास, गोंद। ४ विलेपन, चुपड़ाव। ख्यात चारित्ररूपी शड परिणामों को जो कषै-न होने "पखापिनो लोध पायदधे गोरोपनाच पनितान्तगौर।" (कुमारमा) दे उसको कषाय कहते हैं। इसके अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान पोर सज्वसन ये चार मेद है ५ भाराग, उबटन। ६ योनाकाहाच, सोनापान । इन चारमें प्रत्येक क्रोध, मान, माया, लीम ये चार ७ कपित्यवाक्ष, कैथेका पेड़। महासजवर, धूनेका चार मेद है इसतरह सोलह हो जाते है। फिर इनके बड़ा पेड़। ८ मण्डलिसर्प, एक सांप। १० राग, पासक्ति, लगाव । ११ कलियुग, वरा मान भी उत्तरोत्तर असंख्याते भेद है। कषाय की विशेष व्याख्या करने लिये जैन धर्ममें अनेक थान है। बल्य समाधिका एक विन। वाध विषयसे हट अखण्ड सबसे बड़ा कषायाभूत है। गोम्मटसारमें भी वस्तु ग्रहणमें लगते भी जो राग धादि संस्कार उठ इसका पनेक व्याख्यान है। मनको स्तब्ध और अखण्ड वस्तु ग्रहण पृथक रखते, कषायशत् (म. पु.) कषायं कथायरागं करोति, उन्हें कषाय कहते हैं। १३ चोहितवर्ण, लातरंग। कषाय-ज-किप तुगागमः । १ रोध, खास (वि.) १४ कवायरसविशिष्ट, कसैला। १५ सुरभि, लोध। इसकी. छाल रंगने में लगती है। (मि.) ख.थबूदार। २ कवायपस्तुतकारी, काढ़ा बनानेवाला। प्रत्य पेप स्टतममलामोदर्मवौकषायः" (मेघद्त) कषायचित्र (सं. मि.) लोहितवर्ण वारा रचित, फौके १६ लोहित, सुख, साल। १७ रक्तपीत मिश्रित, सुर्ख रंगसे बनाया हुवा। साल-पीला। १८ अपटु, मावाकिफ। १८ सुश्राव्य, कषायनल (सं० लो०) जनविशेष, एक पानो। प्रष अच्छीतरह सुन पड़नेवाला, जो कानमें खटकता न (पाकर ), अश्वत्य (पीपर) पौर वटके सिजनको २० रनित, रंगदार। २१ आसता, मंसार- कषायजन कहते हैं। लिप्त, फंसा हुवा। जैनशास्त्र में लिखा है, कषायता (स. स्त्री०) कपायस्य भावः, कवाय-त- "बससारकान्तारमय वै यान्ति येजनाः । टा। कषायंका धर्म, कन्चापन। ते कथायाः क्रोधमानमायालोमः पति श्रुतः ॥” (लोकप्रकाश श६०८) | कषायदन्त (स. पु.) मूषिक विशेष, किसी किसका जैनशास्त्र में 'कवाय'के अपर बहुत विचार किया चूहा। इसका शुक्र जहां गिरता, वहां शोध, कोय. है। क्रोध, मान, माया, लोभका नाम ही कषाय है। भादि उठता है। ( सुश्रुत) इसके उत्तरोत्तर भेदोका बड़ी ही मुमताके साथ कषायदशन, कपायदन्त देखो। दिग्दर्शन कराया गया है। गोम्मटसार (जीवकांड)में | कषायनित्य (स• वि०) नित्व पतिमात्र कवायरसदेवी, कषाय शब्दको दो तरसे निति लिखी है। जैसे रोज़ हदसे ज्यादा कसैसी चीज खानेवाला । करायपाक (पु.). द्रष्य विशेष काधकी प्रस्तुत सादुक्यसबसस कम्पकोच बसदि नौवसम्म । प्रणाली, किसी चीज औमांदा बनानका तरीका। संसारमर' तेष कमायोनि ' बैंपि२८१.१.. <<
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२५९
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