कस्त रिका मृग २६९ यै गन्धिन: चौणशरीरका पार्थिवा गन्धमगाः प्रदिष्टाः ।" था। प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथके मतमें हिमालय- (युशियल्पतरू) प्रदेश इस जातीय मृगका प्रधान वासस्थान है,- मृगजाति एक प्रकार नहीं। पार्थिवमग, जलमृग "मगनाभिः कक्ष रो लदगन्धि कस्त रोमगाधिष्ठामादिव्य का वायुमृग, गगनमृग और तेजोमृग पांच भेद विद्यमान तैन हिमाद्रावपि तन्ध गस्य सञ्चारो ऽसीति गम्यते।" है। जिस मृगका शरीर एवं कर्ण क्षीण तथा गन्ध- (कुमारसम्भवके उपर मल्लिनाथकृत टौक्षा १।५४) विशिष्ट देखाता, वह पार्थिव गन्धमग कहाता है। यह सूग ग्रीष्मकालमें समुद्रसे ८००० फीट ऊंचे मग देखो। इसी गन्धमृगका पपर नाम कस्तू रिका- स्थान पर साइबेरियां, मध्य एशिया एवं हिमालय मग है। कस्तू रिकामृग रोमन्यक (पागुर करनेवाले) प्रदेशमें टहिण में और प्रासाममें देख पड़ता है। चतुष्पद पशवोंमें परिगणित है। यह साधारण हरि- सकल स्थानों की अपेक्षा तिब्बत देशीय कस्त रिका- योकी भांति नहीं होता। दूसरे हरिणोंके बड़े बड़े मृग अधिक पादरणीय है। इसे तिब्बतमें 'सा' एवं सौंग रहते है। किन्तु इसके वह देख नहीं पड़ते। 'लव', काश्मीरमें 'गैस', कुनावरमें 'वेना', हिन्दुस्थानमें फिर भी गति हावभाव बिलकुल परिणोंकी ही भांति 'कस्तू रा', महाराष्ट्र में पेशौरों और ईरानमें 'मुश्क है। इससे यह विभिन्न जातीय हरिण कहाता है। कहते हैं। इसका अंगरेजी वैज्ञानिक नाम मुस्चस् हरिणों की भांति चक्षुके मूल में इसके पक्षिछिद्र नहीं होते । इसकी छोड़ ऊपरी चौइसे गालक दोनों मस्चिफेरस ( Moschus moschiterus ) है। यह ढाई फीटसे अधिक बड़ा नहीं होता। चर्म पा में इसके दो गनदन्त दो-तीन पङ्ग थि बाहर कृष्णवर्ण रहता है। बीच-बीच लाल और पीले दाग निकल पाते हैं। लोमस्पर्श करनेसे इंसपुच्छके पालकोंकी भांति कर्कश लगते हैं। कस्त री होके लिये पड़ जाते हैं। गतदेश पीताम लगता है। लेन (पुच्छ) कोई एक इश्व दीर्घ देखाता है। स्त्रीपुरुष इसका इतना भादर है। कस्त रो नामक सुगन्धि द्रव्य बहु दिनसे भारतवर्ष में प्रचलित है। दोनोंके पुच्छ पर दो वार पर्यन्त लोम और निम्न भागमें पश्म रहता है। बढ़नेपर पुरुषका लोम या "यस रिकामगविमर्द सुगन्धि रैति।" (माघ) पहले भारतवर्षमें तीन जगह तीन प्रकारका पश्म उड़ जाता है। क्य:माप्त पुरुषके केवल नाभिसे हो कस्तरी निकरती है। कस्त रिकामृग मिलता था। स्थानभेदसे कस्तूरीका भी तारतम्य रहा। काश्मीरपण्डित नरहरिके विर. चित निखण्टु राज नामक ग्रन्यमें लिखा है,- "कपिला पिहला कृष्णा कम्त रो विविधा मना । नेपाचऽपि कारमौरकै शामरूपेऽपि नायसे । कामरूपोडवा येहा नपाली मध्यमा भवेत् । कामोरदेशसम्भषा कसरी धधमा व्यवा।" नेपाल, काश्मीर तथा कामरूप तीन प्रदेशों में कपिला, पिङ्गला एवं कष्य तीन प्रकारको कस्तरी उत्पन्न होती है। कामरूपको सर्वोत्कष्ट एवं कृष्ण- कस्त रिका मग। वर्ण, नेपालको मध्यम तथा नीलवर्ण और काश्मीरको यह प्रति भीर, निरीह, लाजुक पौर निर्जनप्रिय कस्त रो अधम एवं कपिलवर्ण रहती है। उस प्रमाण है। निविड़ परख और मानवके पगम्य उपत्यका द्वारा समझ पड़ता-पूर्वकालमें कामरूप, नेपाच प्रदेश में इसके विचरणको भूमि रहती है। शिकारी और कामोर, भिवप्रकारका कस्त रोमग रहता बड़े कष्टसे धर पकड़ कर सकते हैं। किसी प्रकार Vol. IV. 68 -
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