. कहवा २७३ कप्यि, मराठीमें कफ्फी, मारवाड़ीमें कफि, तामिसमें । दुकानें बन्द करा दौं। उनका कहना था-कहवेकी कपिकोत्तई, तेलगुमै कपिवित्तुलु, मलयमें कोपि, दुकानों पर बंशमाश इकट्ठा होते हैं। कनाड़ीमें कापियोज, फारसीम बुन, ब्रह्मोमें काफिसि ई०१७वें शताब्दके अन्त कहवेको कृषि बढ़ौं। और सिंहलीमें कापिकोत्ता कहते है। भारत, सिंहल, यवद्दोप, जमेका और जिसमें यह अधिकांश ग्रन्थकार क हवेको अविसोनिया,सोदान लगाया जाने लगा। १६८० ई०से पहले यह परबमें पौर गोनिया तथा भोजविकके पूर्व समुद्रतटका वृक्ष ही होता था। पाजकल कोष्टा, रिका, गाटेमाला, मानते हैं। अरवमें किसीने इसे उत्पन्न होते नहीं देनेजु.येला, गिाना, पेरू, बोलिविया, कूबा, पोर्टी देखा। रिको और पशिम-भारतीय दीपपुप्लमें भी कहवा खब क.हवा एक क्षुद्र वृक्ष है। इसमें शाखायें बहुत उपजता है। कहते दो शताव्द पूर्व मकेसे बाबा होती है। यह. १५ से २० फीट तक बढ़ता है। वल्पाल बूदन कहवेक ७ वीज महिसुर लाये थे। खैताम और पुष्प खेतवर्ण रहता है। फल पकनेपर इसकी भूमि उत्तम और भाद्रं रहना चाहिये। लाल पड़ जाता और छोटे शाहदाने की भांति यह रकवर्ण एवं कृष्णवर्ण भूमिमें अधिक पनपता है.। देखाता है। फलमें दो बीज परस्पर चिपटे रहते प्रबल बायु लगनेसे इस बड़ी हानि पहुंचाती है। हैं। - यही वोन निकालनेसे वुन कहलाते और भूमि ढालू रहना चाहिये। सौंचनेको सुविधा पड़ना वाज़ार में वैचे जाते हैं। वौजोंको भूनने पीर पीसनेसे अच्छा है। भूमिको १८से २४ इन्च तक गहरी जोत दुकानका कहवा तैयार होता है। घास फूस निकाल डालते है। एकर पीछे ५०से ८०मन दाक्षिणात्यको इसकी कृषि अधिक है। कहवे और तक खाद पड़ती है। पानी निकलनेकी राह क्यारियों योको एक ही प्रकारको भूमिमें लगाते हैं। इसे रखी नाती है। वीनोंको कतारी में बोना चाहिये। पानी बराबर मिलना चाहिये। उष्ण प्रदेशमैं यह प्रत्ये क कतार 2 इञ्च पृथक और २ इञ्च गभीर रहती बहुत पनपता है। निविड़ मेध ठीक नहीं पड़ता और है। वोन एक एक पञ्च दूर डाले जाते हैं। सवेरे प्रवल वायु लगर्नेसे पुष्प पड़ता, जिसमें पापा कहवा और सन्ध्याकाल सिंचायी होती है। बीन उत्तम निकलता है। विशेष उष्णता और शोष रहनेसे छाया रहनेसे फसल भी अच्छी निकलती है। दो चार पावश्यक पातो और प्रबल वायु चलनेसे वृक्षों को प्राड़ पत्तियां निकलनेसे चोंको खोद दूसरी जगह लगाते लगायी जाती है। निम्नप्रदेशको भूमिमें उपयुक्त है। .जल भरा रहनेसे जड़ें सड़ जाती हैं। एक एकर आद्रता न रहनेसे अच्छो फसल कम होती है। भूमिमें १०३७से अधिक वृक्ष न रहना चाहिये । ई० १५वें शताब्दको शेष शहाबुहीन इसी अदन गोबर की खाद मच्छी होती है डालियां बहने ले गये थे। यमनसे यह मक्के, कायरो, दामासकस, थोड़ी थोड़ी काट देते हैं। ५ फीटसे अधिक इसका अलेप्पा.और कुस्तुनतुनिये पहुंचा। सबसे पहले १५५४ : वदना खराब है। इसके साथ दूसरी चीज लगा नहीं ई०को कुस्तुनतुनियामें ही कहवेको दुकान खुली थो। सकते। इसको कृषिका समय मई या जून मास है। १५७३ ई०का अलेप्पोमें रानवोल्फ नामक यूरोपीयको | दूसरे वर्ष मार्च मासमें पुष्य पाते और अलोवर मास इसका नाम सुन पड़ा। फसल काटने का प्रबन्ध लगाते हैं। फूल नवम्बरसे मुसलमानामें कहवा पोनका बड़ा आदर बढ़ा। जनवरी तक पका करते हैं। पके फल को शीघ्र तोड़ मसजिदोंसे भी अधिक लोग कहवेकी दुकानों में देख लेना और रतवर्ण फल गिरा देना चाहिये। पड़ने थे। इससे मोचवियों ने बिगड़ इसका पर कड़ा साधारणतः देशीय चोंग फौथा। धूपमें मुखा महसूल . बांधा। ग्रेट टेनमें यइ १६५२ ई०को पोखनीमें कूट पछोड़ कर वीज निकालते हैं।. किन्तु पहुंचा। किन्तु १६०५.१० का २य चालसने इसकी यह रीति, अधिक लाभकर देख नहीं पड़ती। अंगरेज Vol. 69 IV.
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