पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२८३

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२ काक यह दुष्ट दरिद्रों के लिये प्रति अनिष्टकर है। हिमालय और युरोपमें रहनेवाचा डोमकाक कभी कभी कौंवा फूसके छप्पर या झोपड़ेमें खाद्यादि अधिक भोर होता है। यह कभी लोकानयम जाना छिपा रखता है। श्रावश्यक स्थान न पति यह प्रधि नहीं चाहता। किन्तु भारतकै अन्यान्य स्थानों का कांश णादि खोंच घर तक उलट देता है। डाम-काक देशी कोवैको भांति निर्भीक रहता और यह करचोटियेसे बहुत घबराता है। इसे देखते घगेंमें इच्छानुसार पाया जाया करता है। यह प्रति हो काक स्थान छोड़ भागता है। वह भी इसके पीछे इन्दप्रिय है। डोमकाक लड़ते लड़ते इतना उन्मत्त पड़ जाता है। पड़ता, कि दो में एक न एक अवश्य मरता है। सिन्धु- भारतवासियोंके नवान्न पर्वपर काकका बड़ा पाटर प्रदेश में प्रति वर्ष शरत्कानको जब इनका दल पाता, होता है। प्रत्येक एहस्थ 'नवाब' ले घरको छतपर तब बनेकोको मृत्य घर दवाता है। इस नोग चढ़ता और इसको आने बोलाया करता है। किन्तु अनुमान नगति कि डोम काक स्वभावसुनम इन्द. उस दिन काकका पाना कठिन पड़ता है। क्योंकि प्रियताके कारण ही मर जाते है। सिन्धुप्रदेशवाले यह सर्वत्र भोज्य मिलने से बप्त रहता है। जातिगत कण्ठस्वरसे भिन्न धण्टे के ध्वनिकी भांति एक २ (क) गङ्गापारी कोवा-'करवस' जातिमें सबसे प्रकार शब्द निकाल सकते हैं। युक्तप्रदेशमें यह धास बड़ा होता है। भारतवर्षके उत्तराचन्नमें यह प्रधिक फूसी मैदान या हलके जङ्गलमें बड़े बड़े वृक्षोंकी देख पड़ता है। इसीसे हिन्दुस्थानी इसे 'गङ्गापारो' शिखावोंपर घोंसले बनाते हैं। इसके चार-पांच परहे कौवा कहते है। सिन्धु, राजपूताना प्रभृति कई होते हैं। प्रायः पीय माससे कालगुन तक यह पण्डे देशों में यह ग्रीष्मकालको नहीं रहता। शतके प्रथम देते हैं। अण्डे हरित् प्राभायुक्त तरल नील वर्ण होते यह आता और वसन्तके पश्चात् हो पफगानस्तान, हैं। उनपर काले मटमैले, बैंगनी और नाच रहाके कामोर प्रभृति शीतप्रधान देशोंको चला जाता है। धब्बे हिमालय-प्रदेश १४००० फीट चे यह मिनता, (ख) भूटानका डोप्रकार-हिमालय जब- दूसरे पार्वत्य प्रदेशमें देख नहीं पड़ता। बङ्गाल, युना. तम प्रदेश, काश्मीर, कुमायूं राज्य और तिब्बतम एक प्रदेश और पञ्जाबमें भी यह होता है। गान गाद प्रकारका २८ च्च दीर्घ काक होता है। इसका पक्ष नील प्राभायुक्त चिक्कण कृष्णवर्ण रहता है। गनदेशक १८ इञ्च बढ़ता है। अवंचक्र मूलको उच्चता. पालक दी और विरल होते हैं। अपगे मोठ (टोट) पधिक रहती और पंछ मी दोई लगती है। अन्यान्य- का अग्रभाग कुछ वक्र लगता है। अर्ध्व चच्नु को अवयव साधारण देगीय कारकी भांति होते हैं। दो उता अधिक पड़ती है। पच १५ दृक्ष और देह चार वैदेशिक शाकुनशास्त्रविद इसे एक स्वतन्च जाति २५से २७ दृश्चतक दोघं होता है। चञ्चु के उभय मान 'करवम् टिवेटेनास्' (Corvus Tibetanus ) पार्योम गट्टा रहता है। चञ्चु और पदय धार कृष्ण नामसे अभिधान करते हैं। किन्तु प्राकारको सामान्य वर्ण होता है। अवं चञ्चुका पग्रभाग कुछ वक्र रहता दीर्घता छोड़ इसमें कोई अन्य विभिन्नता देव नहीं है। इसे बङ्गाली 'डोम काग' अंगरेज 'राविना पड़ती। इमोसे वहुतसे लोग तिब्बती कौवेको देशोोंमें गिनते हैं। (Raven), स्कच 'क' खोडनवासी 'क्रप', दिनमार 'शैन', नमन कोलके ड', फगमौसी 'करवी', इटालीय युरोपीय शानशास्त्रविद कहते कि डोमकाक 'क्रवो, रोमक 'करवस्', स्पीय, एस कुश्वा, पश्चिम (Baven) मनुष्योंके कण्ठस्वरका प्रतिमुन्दर अनुकरण भारतीय हीयवासी 'कप कप गिर', सौर एसकुश्माने कर सकते हैं। 'तुलुपाक' कहते हैं। वैदेशिक शाकुमशास्त्र में इसको मरुप्रदेशमें होता है। इसका कपास और मस्तक करवस् कीराक्य (Corvus Corax) लिखते हैं। पड़ जाते हैं। - 1 (ग) पाटलचूड़ (गुलाबी चोटीवाला) वाक-