एक मट्टी । २८८ काककङ्ग -काकचरित्र काककङ्ग (सं० स्त्री०) काप्रिया काङ्गः मधुली। पर परिष्कार उत्तर देता है। पवियकाक विप्रकाकको धान्यविशेष, चीना। 'चीनकस्तु कामका' ( हैम १२४४ ) अपेक्षा अल्म रहता है। वैयकाक अधिवेशन और काककण्टक (सं० पु.) जलचर पचिविशेष, पानीको शूद्रकाक पूजार्चन पानेसे बोलता है। किन्तु अन्यज एक चिड़िया। काक सर्वदा समस्त प्रश्न लगाया करता है। इन पांचों काककर्कटी (सं० स्त्री० ) खजूरी वृक्ष, खजूरका पेड़ । काकीक शब्दसे उसी समय, तीन दिन, सप्ताह वा एक काककला (स. स्त्री०) काकस्य कला अवयक व पक्षमें फल अवश्य मिल जाता है अवयवी यस्याः मध्यपदलो। काकनवावक्ष, शान्त और प्रदीप्त भावमें वोखना शुभप्रद है। किन्तु एक पेड़। रौद खरविशिष्ट शब्द प्रशस्त नहीं होता। मधुर स्वर काककुड्मल (सं० लो०) नीलपझ, प्रासमानी कंवल। ही सर्वत्र अच्छा है। प्रदीप भाव अथच परुषखरसे काककुष्ठ (सं. ) काठ, दवामें पड़नेवाली बोतने पर कार्य बनकर भी विगढ़ जाता है। किन्तु प्रदीत अथच शान्तभावसे शब्द करते सिधि मिलती काककूर्ममृगाखु (सं० पु०) कौवा कछुवा, हिरन है। यदि काक शान्त एवं प्रदीप्त भावसे एक बार और चहा। बाहर बोल भौतर पाता और फिर वैसा ही शब्द काकनी (संस्त्री० ) काकं इन्ति, काका-इन-ट डोष् । सुनाता, तो समस्त विघ्न विनष्ट हो कार्य बन जाता है। महाकरनवच, बड़े करौंदेका पेड़। प्रथम दीप्त और पश्चात् शान्त शब्द निकालने कार्य काकचरित्र (सं.ली.) काकस्य चरित्र वणितं यत्र, बिगड़कर बनता है। बहुव्री। शाकुनशास्त्र का अंथविशेष, इल्मशिशूनीका सूर्योदयके समय पूर्वदिक किसी निर्दोष स्थानमें • एक हिस्सा। इसमें यही उपदेश लिखते काकके शब्द सम्मुख बैठकर काकके वोलनेसे चिन्तित कार्य निक- विशेष चेष्टादिसे कैसे लाभालाभ मालम कर सकते हैं। लता और स्त्रीरत्नादि मिलत ।। अग्निकोणमें वह वसन्त राजप्रणीत शाकुन शास्त्र में कहा है- शब्द करनेसे शवनाश, भयनाश और स्त्रीलाम होता काक पांच श्रेणियों में बांटा है,-ब्राह्मण, क्षत्रिय, है। दक्षिण दिक में परुष स्वरसे शब्द करनेपर प्रति वैश्य, शूद्र और अन्त्यन । वर्ण, स्वर और खभावसे यह दुःख, रोग वा मृत्य आता, किन्तु मधुरखर रहते कार्य भेद पईचान लेते हैं। जो परिमाणमें वृहत् क्षणवर्ण, बन जाता और स्त्रीलाभ देखाता है। न त पौर दीर्घ, विशाल मस्तकयुक्त पौर गम्भीरस्वर रहते, उन्हें सहसा बोल उठनेपर कर कार्य लग जाता, दूत पाता विप्रजाति कहते हैं। मिश्रवण, पिङ्गल अथवा नील और मनुष्य मध्यम सिद्धि पाता है। पश्चिम दिक्में तीक्ष्यरव और अतिशय बलवान् काक क्षत्रिय शब्द करनेसे वृष्टि पड़ती, राजपुरुषको अवायो ठहरती जाति हैं। पाण्ड़वा नीलवण, खेत अथवा नीलचञ्च और स्त्रीसे लड़ायौ चलती है। वायुकोणम बोचनेसे और शब्द अल्परूढ़ वैश्यजाति होते हैं। भाकी मांति दान्छित वस्त्र, अन्न एवं यान मिलता, किन्तुं पहला वर्णविशिष्ट, मशशरीर, अधिकांश ककार शब्द युक्त, पाजीवन बिगड़ता, अतिथि प्रा पहुंचता और अपनेको और चञ्चल स्वभाव. शूद्रजाति मान गये हैं। रूक्ष, खंदेशवे विदेय जाना पड़ता है। उत्तरदिकम शब्द अथवा सूक्ष्म मुख, दौतिविशिष्ट स्वन्धदेश, शब्द एवं करनेपर दुःख, सका भय, दारिद्र, धनका नाश और बुद्धित्ति स्थिर और पप भाशावास अन्त्यज कहाते प्रियव्य शिलाभ होता है। ईशान दिक में बोलनेसे अन्त्यज पाते, रोगके कारण उठते देखाति प्रिय वस्तु मित हैं। द्रोण नामक कृष्णवर्ण विप्रकाक श्रेष्ठ होता है। प्रभावमें जिनका, करदेश स्यामवर्ण लगता, उनका जाते और पौड़ाका आधिक्यमें रहते मृत्यु पाते हैं। लक्षणादि देखना पड़ता है। अत दर्शन होनेसे | प्रदेश अर्थात् अर्ध दिक्को मधुर स्वरसे शब्द करने पर बाञ्छित अर्थ, प्रचुर अनुग्रह और धन मिलता है। खेतकाक ग्राध नहीं ठहरता। विप्रकाक प्रश्न करने
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२८७
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