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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२८८

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काकचरित्न २८ट. प्रथम प्रहरके समय पूर्व दिकको काक बोलनेसे निकालते सम्पद बढ़ती तथा चौरभौति था पड़ती, चिन्तित कार्य बनता, अभीष्ट व्यक्ति आ पड़ता और किन्तु रम्य ध्वनि रहनेसे राजाको अवायी ठहरती और जयप्राप्ति एवं कार्यसिद्धि लगती है। इसी प्रकार अग्नि- विनष्ट विषय मिना करता है। अग्निकोणमें सवेरे शब्द करनेसे स्त्रीलाभ और धन नाश होता है। दक्षिण कोण में विरुद्ध शब्दसे अग्निभय, कलह, प्रमुख संवाद . दिकको प्रातःकाल बोलनेसे स्त्री, सुख और प्रियसङ्ग तथा यावाकी विफलता और विशुद्ध स्वरसे जयादि पाते है। नैऋत दिक्में पहले पहर टेर लगाने मंवाद पाते हैं। दक्षिण दिक् बोलनेसे शीघ्र ही रोग प्रियपत्नी, मिष्टान्न सामग्री और चिन्तित विषयको लगता, प्राप्त व्यक्ति बा पड़ता और क्षुद्र कार्य बनता सिहि मिलती है। पशिम और पुकारने पूज्य जन है। नैऋत दिक्को शब्द करनेसे मेधागम, मिटान पाते और मेध वरसने लग जाते हैं। वायुकोपामें लाभ, शव नाथ, शूद्रागमन, प्रभुके विरुह संवाद श्रवण बोलने शभ, राजप्रसाद और पधिक देख पड़ता है। थोर यावाम कार्यनाश होता है। पथिमशो टेर उत्तर कोणको टेर उठानेपर भय, चौर, शोक, सुख लगानेसे नष्टधन मिलता, दूर पथ चलना पड़ता, सुद अथवा धन लाभका संवाद मिलता है। ईशानकोणसे व्यक्ति आ पहुंचता, अभीष्ट जयादिका संवाद लगता, शब्द आने पर प्रिय व्यक्तिके साथ श्रालाय, अग्निका स्त्रीलाभ ठहरता और याना कार्य बनता है। वायु: त्रास, और बहुतसे लोगोंका साथ होता है। ब्रह्मदेशमै कोयमें बोलनेसे दुर्दिनवार्ता, अपहृत वस्तुका लाभ, बोलनेसे सुख एवं कामभोग, सम्मान, सम्पद, धन और सन्तोषकर संवाद, उत्तम स्त्रीचाभ और यात्रा होता है। सिद्धि पाते हैं। उत्तर दिक् शब्द कर उठनेपर कार्य वनता, अर्थ द्वितीय प्रहर पूर्वदिकमें काकका शब्द सुननेसे मिलता, भोज्यवहिका शुभ संवाद सुन पड़ता और कोई पथिक पाता, चौरका भय देखता और व्याकु. गमन तथा वैश्यसमागम रहता है। ईशान दिक्के लता तथा अतिशय श्राशयाका वेग वड़ जाता है। सुशब्दसे भोज्य एवं जय मिलता, किन्तु शब्दसे हानि अग्निकोणम बोलना प्रियव्यतिके आगमनसंवाद और तथा कान उठाना पड़ता है। ब्रह्मदिक्को बोलनेसे स्त्रीलामका सूचक है। दक्षिणके शब्दसे पानी पड़ता, तित्ततण्डल एवं तावचयुक्त भोज्यलाभ होता है। अतिशय भय बढ़ता पौर प्रिय व्यक्ति या पहुंचता है। चतुर्य प्रहर-पूर्व दिक्को काक बोजनेले अर्थलाभ, तम दोपहरको काक योजनेसे प्राणमय, स्त्री एवं राजपूजा, अभय, सम्पद्वहि और रोग तथा अग्नि- भीष्यलाम और यावतीय रोगका नाश होता है। कोणसे शब्द अानेपर भय, रोग, मृत्य और शिष्टागम, पश्चिममें पुकारनेसे स्त्री मिलती, सम्पद बढ़ती और दक्षिण दिक्. पुकारनेसे तस्कार तथा शत्रु का भय कुष्टि पड़ती है। वायुजीणमें बोलने ध्वज तथा चौर वढ़ता, शिष्टजन आ पहुंचता पौर रोग एवं मृत्यु देख सङ्ग दूतका आगमन, और स्त्री मांस तया अन्ननाम पड़ता है। नेतको टेरसे प्रतिदि, अभीष्टसिद्धि होता है। उत्तरको रम्य रख निकालनेसे स्वगण एवं दुष्ट पौर पथमें चौरके साथ युद्ध होता है। पश्चिममें पुका- व्यक्ति पाता और जयलाम देखाता, किन्तु परम्य स्वर रनेसे ब्राह्मणका घागमन, प्रर्थ लाम, स्त्रीएवं जयलाभ, रहते चौरभय वढ़ जाता है। ईशानमें रुक्ष भावसे वर्षण, यात्रा में मनोरथ पूरण और राजप्रसाद होता है। बोलने पर चौर तथा अग्निका भय समाता और विरुद्ध वायूकोणम वोलनेसे -प्रियपनीका प्रागमन, सप्ताहके वाक्य सुनाता, किन्तु अरुक्ष लगने पर गुरुपागमन एवं मध्य प्रवास और सत्वर प्रत्यागमन है। उत्तरको शब्द जयलाभ देखाता है। ब्रह्मप्रदेशमें दिनके हितोय कर उठने पर पधिक बाता, ताम्बूल पाया जाता, प्रहर मुशब्दसे राजपसाद तथा मिष्टान्न मिलता, किन्तु कुशल संवाद सुनाता, वैश्यसेवन मिलते देखाता, कुभष्ट्रसे चौरभय लगता है। पखादि पर आरोहण लगता और विन्द यात्रा द्वतीय प्रहरको पूर्वदिक्में काकके रूच शब्द रोगी प्राण गंवाता है। ईशान दिक्को शब्द सुन पड़ते Vol. IV. 73