पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२८९

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होती है। २६. काकचरित्र स्वर्णका संवाद पाता और रोग नष्ट हो जाता है। शस्य नसाता पौर दोनों और महाविरोध देखाता है। अादिकमें बोलनेसे मध्यम वार्ता और मध्यम सिद्धि उत्तर भाखा पर सोनेसे वर्षाकालको परिमित वृष्टि, मङ्गल, सुभिक्ष, मुख, नीरोग, सम्पद वृद्धि और समृद्धि दिक् और प्रहरादिके अनुसार सकल शुभाशुभ है। ईधानदिकस्य शाखापर रहनेसे अत्य जल वर- विमिवभावसे कहा है। इसमें दोपशब्दको प्रशम सता, शन बढ़ता, प्रनावगंका उब्सगं पड़ता, वान्धव और शान्त शब्दको शुभकर समझना चाहिये। दूसरे कलह लगाने लगता और जनसमूह मर्यादाशून्य दीसदिकका ख शान्त दिक्को प्रसारित होनेसे बनता है। वृक्षके अग्रभागमें प्रति वृष्टि, मध्यदेश में अधिक फन्तप्रद है। दीप्तदिक्को वैठ उसी ओर देखते मध्यमरूप वृष्टि पौर निम्न देशमें रहनेमे अनावृष्टि देखते बोलना अच्छा नहीं होता। दीप्त दिकमें रह होती है। भूमिमें कोण बनानसे अष्टि और रोगादि मदीस दिक्को देखते देखते शब्द करना भी दुष्ट भयको हदि है। शुष्क वृषपर उसनेस विग्रह पौर दीप्त दिक्में बैठ प्रशान्त दिक को धूम बोलनेसे तुच्छ अवनाश है। प्राचौरके रन्धमें काक रहने प्रभूत भौर दुष्ट फल मिन्तता है । थाखा पर रह थान्त भय लगता है। निम्नप्रदेश, तरकोटर, वाल्मोक- • दिक्को देखते देखते रूक्ष शब्द निकालनेसे अल्प रन्ध, और लतामें सो जाने से पौड़ा, अष्टि और देशक प्रनिष्ट होता है। शान्त दिक्को दृष्टि डालते डाचते नियमकी शून्यता रहती है। शान्त स्वरसे बोलना पत्य अभीष्टप्रद है । शान्त अयप्रसबके अनुसार गमागमका निय-एकको वारुण, दिकमें रह दीप्त दिक् देखते देखते शब्द करना शीघ्र दोको अग्नि, तीनको वायु और चार भण्हें देनेको अभीष्टप्रद शेता है। इसी प्रकार मनुष्यों को कार्कीका ऐन्द्र कहते हैं। वारुण पृथिवीमें शस्थ बहुत बढ़ता, प्राकार, प्रकार, भाव और रव विभाग कर दिवारावमें अग्निये मन्द वर्षण पड़ता तथा रोपित वीजमें अकुर चारो प्रहरीका शुभाशुभ देखना चाहिये। नहीं उठता, वायुसे शस्य उत्पन्न होवे भी सूखते सूखते काल और स्थान विशेष काकका यह निर्माण शलभ प्रभृति कीटोंका भक्षण-वनता और ऐन्द्र अण्ड देखकर भी शुभाशुभ निरूपित होता है। प्रसव करनेसे मङ्गल, मुभिक्ष, सुख और कार्य वैशाख मासको निरुपद्रव वध, सहनिर्माण निकालता है। करने देशका मङ्गल और कुत्सित, शुष्क वा कण्टक काक राष्ट्र चैधादिसे यावाकालीन यमायमका निध-काकी- युक्त वक्ष घोसला लगानेसे दुर्भिक्ष होता है। प्रशस्त को दधि और प्रत्युत्ता पूजा चढ़ा यात्रा के समय प्रवासी वृक्षको पूर्व शाखा पर घर बांधने पानी बरसता, शकुन निस्रोत मन्त्रपाठपूर्वक नमस्कार करते हैं,- प्रशाद मिलता, नौरोग रहता और विषय हाथ लगता "भुड बलि पचिपु नन्नपूर्त व माविषु प्राणिय वर्ष वचम् । है। अग्निकोणको भाखासे वष्टि, भय, गुप्न च.नी भजसे नमोऽस्तु तुभ्यं खगेन्द्राय मञ्चनप्रज्ञाय " वा पाप, दुर्भिक्ष एवं शत्रु द्वारा देश नाश और पशु. नमस्कारके पीछे अपना कार्य सोच सिद्धिको वोंको पीड़ा है। दक्षिण शाखासे अल्प वृष्टिपात, कामनासे का दर्शन करना पड़ता है। उस समय अन्ननाश और शत्रु विरोध होता है। नैऋत शाखा यदि यह वामदिसे मधुर शब्द कर दक्षिण पोर पर घोसला लगानसे वर्षाकालकी अल्प जल बरसता, चला पाता, तो सर्वार्थ सिद्ध हो जाता और प्रत्यागमन मनुष्यको रोग शत्रु तथा और भय रहता, दुर्भिक्ष देखाता है। फिर वाम दिसे धूम लौट पाने पर पड़ता और युद्ध चलता है। पसिम शाखासे वृष्टि, भी अभीष्ट कार्य बनता, मसल लगता और यौन नोरोग, मङ्गल, सुभिक्ष, सम्पद और प्रानन्द है। वायु प्रत्यागमन पड़ता है। वामदिक्में अनुलोम लगाते कोणस्य शाखापर घोसता रहनेसे प्रत्यन्त वायु प्राता, अर्थात् ऊपरसे नीचे पाते. समय मधुर रस निकालने मेघ पल जल बरसता, मूषिकीका उपद्रव बढ़ जाता, पर प्रयोजन सिह होता है। बाम और दधिष भय कलह