पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३६१

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1 ३६२ कात्यायन कर पूरण कर्तव्य है। वाह वातीत संख्यापूरण न उसके विधानका प्रकारादि हैं। होनेसे हाह विषयमें गौः और श्रायुः पूरण हुवा करता प्रातष्ठाकाम वघोविशतिरात्रका विधान है। है। यजके प्रारम्भमें अतिगत कर्तव्य है। प्रायणीय प्रजाकाम और 'पशुकाम वाटिके चतुविशतिरावका विधान है। यह और उदयनीयके मध्य आवापस्थान करना पड़ता है। हिविध है। उनमें प्रथमका विधानादि और द्वितीयका जो पावाप करनेका विधि है, उसके अतिरावदय मध्य संसद नाम तथा उसका विधानादि कथित है। पन्नादि- करणका विधान है। आवापसमूहके समवाय द्वारा कामकै पञ्चविंशतिरावका विधि है। प्रतिष्ठाकाम जहां यज्ञ पूरण होता, वहां जो जो अनुष्ठान अल्प पाता षड़विशतिरावका विधान है। धनकामके सप्त- वही प्रथम किया जाता है। दो वयोदशरात्र यतका विशतिरावका विधि है। प्रनाकाम तथा पशुकामके विधि है। इसमें पृथ्य सम्पादित होनेसे सर्वस्तोमनामक अष्टाविंशतिराव एवं दाविंशतावका विधि है। प्रतिरावका विधान है। अर्यात् भमुदाय यजमे हादशाह इस समुदायका क्रमशः विधान है। एकोनवियत्- धर्मका विधान है। सुतरां इसमें भी हादशराव समूह राव, त्रिंशतान, एकविंशत्राव एवं हाविंशत्रावका सम्पादन और सर्वस्तीम अतिरात्रका अनुष्ठान करना विधानादि है। वयस्त्रिंशत्रानका विविध भेद है। चाहिये। ऐसा करनेसे वयोदशगवका पूरण होता उसके विधानका प्रकार है। चतुस्त्रिंशत्रावावधि है। इसका क्रम है। यथा-प्रथम दिन प्रायणीय प्रति. चत्वारिंशत्रात्रि पर्यन्त सप्तयन्त्रका पावापक्रमानुसार रात्र होता है। द्वितीय दिनसे छह दिन पर्यन्त पृष्टय पूरणविधि है। उसका विशेष नियम है। यथा-~~ षड़ह करते हैं। अष्टमदिन सर्वस्तोम अतिराव होता अन्नादिकामके चतुस्त्रि'यत्रान, प्रतिष्ठाशामके षट्- । नवम दिनसे चार दिन तक चार छन्दोम चलते त्रिंशत्राव, ऐखयकामके सप्तविंशवान, प्रजाकाम है। त्रयोदश दिन उदयनीय पतिराव किया जाता है। एवं पशुकामके अष्टावियत्रान पार चत्वारिंशत्राव द्वितीय त्रयोदशरात्रमें दशरावके पीछे महाव्रत करना यनका विधान है। एकोनपञ्चाशत् रात्रसाध्य सप्त पड़ता है। इसी प्रकार भेद कथित है। सन्तार्य यनका विधान है। उनके मध्य प्रथमका माम रतीय योदशराव गवामयन को भांति सम्तरण विधृति है। उसका विधानादि है। हितोयका नाम प्रकार है। चतुर्दशरात्रमें तीन यनका विधान है। यमातिरान है। उसका विधानादि है। तीयका उनके विधानका प्रकारादि है। उसके मध्य शेष नाम पञ्जनाभ्यञ्जनीय है। विद्वानों के मध्य अपनी चतुर्दशरातमें विवाहोदकतल्पसंशयित गणका अधि. ख्यातिके श्राकापियोंका इसमें अधिकार है। इसका कार है। पञ्चदशरात्रको चार यज्ञों का विधान है। विधानादि है। चतुर्थका नाम संवत्सरमित है। उनका विधान प्रकारादि एवं सप्तदशरात्र में, अष्टादश उसका विधानादि है। श्य काण्डिकामें इसके रानमें, एकोनविंशरानमें और विंशतिरावमें इसी सादृश्यको प्रसङ्गाधीन पुत्रार्थियोंके कर्तव्य एकषष्टि- श्य कण्डिकामें रावका विधान है। सविताके उद्दशसे पञ्चम ककुमका प्रकार भावापनपूरण कथित है। षोड़शरात्र प्रभृति चारमें पावाप प्रकार है। उसके विधि है। उसका विधानादि है। उसमें पुत्रार्थीका मध्य षोड़शराबको प्रायणीयके पीछे पश्चाह है। अधिकार है। षष्ठ और सप्तमका सामान्य विधान है। अष्टादगरावमें प्रायणीयके पीछे पड़ा है। एकोनविंश शतरानका विधानादि पौर इस विधानमें विकल्प रात्र में प्रायणीयके पीछे पड़ एवं दशरात्रके विवरण कथित है। इथं कण्डिकामें सवन सन्सन्य पीछे व्रत है। इसी प्रकार भावाप उतिके हारा प्रभृति होमका विधानादि है। संवत्सर प्रति विधान प्रकार है। एकविंशतिराव दो प्रतिराव है। यशमें गवामयन धर्मका पतिदेय है। श्रादित्वगरके प्रयन नामक यन्त्रका विधानादि है। आदिवगपके उनमें भावाप प्रकार और उसका विधानादि है। प्रबादिकाम वालिके हाविंशति रावका विधान है। अयनकी भांति पारिसोंका प्रयनविधि है। उसबा । -