कात्यायन ३६३ । 'विशेष नियम है। दृतिवातवान्क पयन नामक समापनका विधि है। सहस पूरण होते भी यह यज्ञ -यनका विधानादि है। कुण्डपायिगणके अयन नामक समापन करना पड़ता है। ग्रहपतिका होनेसे मृत्यु यन्नका कालविधानादि है। इस यजमें सुत्या स्थान थायुः नामक अतिराव यज्ञकर और द्रष्यसमूल नष्ट समूह पर सोम और उपनहन प्रकृतिका विशेष विधि होनेसे विश्वजित् नामक यन्न कर समापन करनेका । सर्पसत्र नामक यन्त्रका भेद विधानादि और विमिव विधि है। उभय घटनावां में ज्योतिष्टोम उसमें गवामयन धर्मका अनिदेश कथित है। ५म द्वारा समापनरूप पन्य मतका कथन है। इसी प्रकार कण्डिका तापचित नामक यन्त्रका विधानादि है। प्रथम सारस्वत कहा है। हितोय सारस्वत इतिवात- महातापचित यन्जका विधानादि है। क्षुल्लक वान्के अयनकी भांति कर्तव्य है। उसका विधानादि • तापचित यजका विधानादि है। विसंवत्सर यनका है। उसमें तिथिको क्षयाचिका भी विशेष विधान है। विधानादि है। महासन नामक यज्ञका विधानादि शतकृष्णपक्षका विशेष विधानादि है। तीय है। हादश वारसाध्य प्रजापतिसत्र नामक सारख तमें विश्वलित पौर पभिजित विधानादि है। यनशा विधानादि है। षति यत् वत्सरसाध्य उसमें ऋखिक पथवा प्राचार्यके दार्षदत नामक शकत्यानामयन नामक यनका विधानादि है। यजको कर्तव्यता है। इस यज्ञ में एक वर्षके चिये शतवत्सरसाध्य साध्यानामयन नामक यजका विधानादि वनमें गो सकल परित्याग करना चाहिये। हितोय है। सहस्रवत्सरसाध्य विश्वसनामयन नामक यनका वसर उन्हें निर्जल स्थानमें रक्षा करने का विधि है। विधानादि है। (गौणहत्ति अनुसार यह यन्न सहन. इसी वर्ष सरखती तौर नेतन्धवा नामक्ष जो सकल दिनसाध्य समझना चाहिये) सारखत यन्त्रसमूहका प्राचीन ग्राम हैं, उनमें अग्न्याधानका प्रारम्भविधि विधानादि है। यात्सव नामक यनविधि है। पौर कुरुक्षेत्रमें परीपत नामक स्थलपर अन्वारम्भ- शतसंख्यक प्रथमगर्भिणी धमतरी और एक ष सहन विधि है। उसके पीछे ढतीय वार परीणत नामक संख्या पूरणको इस यज्ञ में वनमें छोड़नेका विधि है। स्थलपर ही दर्शपौर्णमासान्त कार्यको कर्तव्यता है। सारस्वत यज्ञका दीक्षाकाल पौर देशादि विधान है। दृषहती तोरसे आ यमुनामें अवभृथ मान और उसी (यथा-चैत्र शुक्ल सप्तमी तिथिको सरखती विनशन स्थान पर मन्त्रपाठका विशेष विधान कहा है। म नामक स्थानमें दीक्षा कर्तव्य है। सरस्वती नानी कण्डिकाम चैत्र वा वैशाखमासको शुक्लपश्चिमी को जो नदी बहती है, उसका पूर्व और पथिम भाग तुरायण नामक सारस्वत यज्ञको कर्तव्यता है। उसकी मनुष्यको देख पड़ता है। किन्तु मध्यभाग भूमिमें दीक्षाका विधानादि है। यह यज एक वारसाध्य निमग्न रहनेसे किसीके दृष्टिगोचर नहीं होता। है। उसमें वर्ष पर्यन्त कर्तव्य का उपदेश है। दार्ष- इसी स्थानको सरस्वती-विनशन कहते हैं। इसमें इतकी भांति पनियत अवभृथसानविधि है। भरत- -दीक्षा विधानादिका प्रकार है।) 48 कण्डिकामे होदशाह प्रभृति हादशाह भेद कथन है। उसका उसका अङ्ग विधानादि है। सरखती और दृषद्वतीक विधानादि और उत्सर्पिसमूहमें गवामयनका विकल्प- सङ्गमस्थलपर उसका विधानादि है। वक्षस्रवण मामक विधान विहित है। सरखतौके उत्पत्तिस्थानपर पग्नयेकामाय नामक २५श अध्यायमें १४ कण्डिका हैं। उनमें अङ्ग -यज्ञका विधि है। इस यजमें कारपच नामक एक वैगुण्य दोषके उपथमको प्रायश्चित्तका विधान है। देशमै यजमानका अवभृथसानविधि है। यवशेष (पायर्यायत्त शब्दका अर्थ है। यथा-प्रपूर्वक पाय उदवसनीयको कर्तव्यता है। पृष्ठशमनीयशून्य तीन धातुके उत्तर धव, प्रत्य य लगानेसे प्राय पद निष्यत्र सारस्वत यच का विधान है। पूर्वोच्च सहन यत्र पूरण होता है। उसका अर्थ विधि प्रतिक्रमके लिये दाष न होते रहपति वा समुदाय गी मर जानिये या यन है। चित धातुके उत्तर भावमें प्रत्यय संगानिये
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३६२
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