कहा कात्यायन चित्त पद निष्पन्न होता है। धातुसमूहका विविध (जैसे यज्ञोपवीतधारी वाशि शिखा बांध पवित्र अर्थ विहित रहनेसे उसका अर्थ सन्धान है। प्रायका दक्षिण इस्त द्वारा कर्म करता है। इस नियमखलमें अर्थात् विधि अतिक्रमके लिये दोषका चित्त अर्थात् | यनोपवीतधारणादि म तिविहित कर्म है। सन्धान अर्थ आता है। इस वाक्यमें पाणिनि व्याकरणोक्त इसमें किसी प्रकार उपधात होनेसे वास्त और मिचित चार 'प्रायस्य चिति चित्तयो' एवं 'पारस्कर प्रमृति' सूत्र महाव्यावृति होमरूप प्रायश्चित्त कर्तवा है।) उसके हारा मध्यमें 'सुट' आदेशपूर्वक यह पद निष्यन्न हुवा पीछे यजुर्वेदोहा सर्व प्रायश्चित्त नामक पूर्वोक्त पच्च है। सर्वकार्यके अन्तमें अथवा निमित्तकालमें प्राय ऋक्वेदीय प्राडुतिरुप प्रायश्चित्त समुदाय प्रात वा वित्तको कर्तव्यता है।) प्रायश्चित्त विशेषका पादेश अचात कारणसे करनेका विधि है। (किन्तु इसमें न रहनेसे सर्वत्र महाव्याहृति होमरूप प्राययित्तका सम्प्रदाय भेद है। यथा-गाईपत्यमें भूः, दक्षिणा विधि है। विशेष आदेश अनुसार ही प्रायवित्त ग्निमें भुवः, आहवनीय अग्निमें खः, एवं सर्व प्रायश्चित्त करना पड़ता है। यथा-"प्रणीता: सवा अभि- नामक पच्च पाहुतिरूप प्रायश्चित्त होममें भू वः स्वः मृशेत” यजुः श्रुतिद्वारा प्रणीताभिमर्षणरूप प्राय है।) उसके पीछे कर्मविशेषके अनुसार प्रायश्चित्त- चित्त विहित होनेसे यही कर्तव्य है।) ऋग्वेदोस विधान कहा है। इस अध्यायको म कण्डिकामें हौतिक कम उपघात होनेसे गाईपत्य अग्निमें 'भू' दम सूत्र पर्यन्त उच्च समस्त विषय वर्णित है। उसके स्वाहा वोल अग्निदेवत होम करना चाहिये। इसमें भाग 2म सूत्रसे कर्मसमाप्तिके पूर्व यजमानका मृत्यु कर्ताका विशेष आदेश न रहनेसे ब्रह्मको ही करना होनेसे कर्मसमाप्ति उसी समय हो जाती है। एक उचित है। ब्रह्मवरणके पूर्व निमित्त उपस्थित होनेसे ऐसा पक्ष है। दूसरे पक्षमें ऋत्विक प्रभृति अवशिष्ट ब्रह्मवरणके पर्व ही व्यावृतिहीमका पन्य पपर भाग समाप्त करते हैं। उसमें कर्मसमाप्ति पर्यन्त ब्रह्मवरण कर उसके द्वारा कराते हैं। जिस अग्नि उत्तर क्रियाविशेषका विधान विहित है। म होत्रादिमें ब्रह्मवरणका विधि न हो, वह स्वयं कर्तव्य कणि कामें उपकृत पशके पचायन प्रभृति पर प्राय- है। कालाहुति द्वारा सोसमें इसका समुच्चय करना चित्तके भेदका कथन है। उसके पागे अन्त्ययाग- पड़ता है। यजुर्वेदोक्त कर्मका उपघात होनेसे “भुवः पद्धति है। म कण्डिकामें पथिक सञ्चयका प्रकार खाहा" कह होम करते हैं। वह भी पूर्व की भांति आदि । १०म कण्डिकामें यज्ञविशेष करने के ब्रह्मका हो कर्तव्य है। सोमके पानीधीय अग्निमें लिये उद्यम करनेके पीछे वह किया न जानसे "भुवः खाहा" कह होम करना पड़ता इतनी विखजित् नामक अतिरान यज्ञ करनेका विधि है। ही पूर्वके साथ इसकी विभिन्नता है इसका देवता यन्त्र प्रादिके लिये दीक्षा करनेसे यदि दैवात् वा किसी सामवेद विहित कर्मका उपघात होने से मनुष्यके लिये वह दीक्षा प्रचंत रहे वा खामौका पाहवनीय अग्निमें "स्वः स्वाहा' का होम करना यन्न समापन न करे और इस प्रकार बुद्धि उपस्थिति चाहिये। इसका देवता सूर्य है। सर्ववेदोक्त कर्मका हो जाये, तो सोमयुक्त साधारण धान्य घृतादि सर्वख उपघात होनेसे तीन वार पृथक् पृथक् “भूभुवः स्वः दक्षिणाके साय विश्वजित् नामक अतिराव यन्न करना खाहा वाक्य द्वारा एवं एक वार समुदाय मिलित चाहिये। अध्वय प्रभृतिका दैवात् स ख कार्य किया न जानसे प्रदक्षिणाभाव में ही कर्म समापन कर "अपाचाग्ने" वाक्य द्वारा चार बार होम करते हैं। इत्यादि पच्च ऋक् द्वारा प्रत्येक ऋक् पर प्राइवनीय पुनर्वार अन्यको वरणपूर्वक याग प्रारम्भ करनेका अम्निमें पञ्च पाहुतिरूप सर्व प्रायचित्त नामक होम विधि है। उसमें दिनके भेदका विशेष नियम है। स्मतिविहित प्रज्ञात कर्ममें पृथक् दीक्षित व्यक्षिकी पत्नी यदि रजनना हो, तो दोषारयः भावसे चार महाव्याति कम करते शनिधान कर समाव पर्यन्त वाहका अवसान. वायु है। करना चाहिये।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३६३
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