कात्यायन ३६५ करना चाहिये। मुत्या वर्तमान रहते सिकतामें सोमका प्राधिक्य होनेसे . पाद्य प्रभृति सवनविशेषके उपवेशन करते हैं। प्रात:काल और सायंकाल अनुसार प्रायश्चित्तके भेदका विधान है। दीक्षित वेदोके निकट सिकता पर बैठते हैं। चतुर्थं दिवस व्यक्तिक रोग लगनेसे द्रोणकलसमें जो शुण्ठिपिप्पाली गोमूत्रमिश्रित जल द्वारा स्मृतिविहित मान कर वस्त्र प्रभृति वपन किया जाये, उसके मध्य जो ट्रय लेनको परिधानपूर्वक मानिपातिक कार्य करना चाहिये। इच्छा ही वही लेकर चिकित्सकको उसको चिभिसा पारात्उपकारक कर्म कर्तव्य नहीं। (दीक्षणीय करना चाहिये ; किन्तु तव्यतोत अन्य द्रव्यहारा भूमि उल्लेखन प्रभृति कार्यको पारात्उपकारक कार्य चिकित्सा विधेय नहीं। उसकाः,विधानादि है। कहते हैं।) पत्नो प्रसूता होनेसे दश राविक पोछे ज्वरयुक्त व्यक्तिके लिये भी पूर्वोत देशमें अवस्थानकाल मान करना चाहिये। मतान्तरमें गर्मिणीशी दीक्षाका पर्यन्त रोगको शान्तिका विधान है, अन्यत्र नहीं। निषेध है। किन्तु "षयजिया: गर्भाः" श्रुतिके प्रातःसवनमें उसके मन्त्रविशेष द्वारा अभिषेकका अनुसार गर्भवतीको भी दीक्षा अधिकार है। प्रकार है। सवनके पीछे दौक्षित व्यक्तिको समुदाय कात्यायनका यही मत है। दीक्षित व्यक्तिके दुःस्वप्नादि ऋत्विक् स्पर्श करते हैं। उसमें यजमानके मन्त्रभेद दर्शन प्रतिम प्रायश्चित्तका विशेष विधि है। चमसके द्वारा स्पर्शका विधि है। दीक्षित व्यक्तिका मृत्य यान और अपान सम्बन्ध में प्रायश्चित्तका विधान है। होनेसे उसको जलाने पीछे उसका अस्थिसमूह क्वष्ण- सोमके ऊपर मेघ बरसनेसे भच्याभक्ष्य निययपूर्वक मृगके धर्ममें बांध मृत व्यक्तिको पत्नीको खोय कर्म • उसमें प्रायश्चित्तका विधि है। चमसके दोषविषयमें पौर पतिका कर्म सम्पादन करना चाहिये। पत्नीका पौर द्रोणकलसके दोषविषय प्रायश्चित्तका विधान मृत्यु होने से उसके नेदेष्ठो मातादि दीक्षित हो यज्ञ अधिभेदनमें होममेद प्रायश्चित्त है। ११भ समापन करते हैं। इसी प्रकार मतान्तर मिलता है। कण्डिकामें सीमका अपहरण होनेसे अव्यक्त क्विमा किन्तु किसीके मतमें मृत्यु होनेसे यज्ञका भी समापन युत पुष्प और ढण सोमकायमै निधान कर अभिषव होता है। उभय पक्षपर उसमें प्रायश्चित्तका विधानादि करनेका विधि है। बहुकालोन खदिर पक्ष लताको है। १३ कण्डिकामें उखामरणके दिन यजमानका भांति बहुरित होनेसे श्येनहत कहाता है। श्येनहत मृत्यु होनेसे विशेष प्रायश्चित्तका विधान है। यज्ञको एवं श्यामा (सोम-सहा पूतिका नामक एक लता), दीचांके मध्य ही मृत्य होनेसे उक्त सोमादि कार्य के लिये अरुण वर्ण दूर्वा, अव्यक्ता रतिमायुक्त दूर्वा, परित्वर्ण दीक्षित व्यक्तिको कर्मफन्च होता है। किन्तु मतान्तरमें कुश अथवा पशष्क कुश-सकल ,व्यमें पूर्व पूर्व कहा है-दीक्षित व्यक्ति धाता प्रकृतिको ही प्रकृत ट्रव्यका प्रभाव पानसे पर पर ट्रव्य प्रतिनिधान कर यत्रफल मिलता है। स्वकीय पग्निमें स्वकीय द्रव्य अभिषव करनेका नियम है। इसमें गोदान प्रायश्चित्त द्वारा साग्निक नेदेठी पुवादिकर्टक साग्निचित्यादि कर उक्त द्रव्य हारा यन्न समापन कर्तव्य है। अवभृथ या भनुष्ठित होनेसे नेदेठोको ही फलप्राप्ति होती पोछे पुनार उसमें यज्ञविधि है। सोमकलसके है। किन्तु प्रक्कत यज्ञफल यजमान याता है। उसमें भेदानुसार सामपाठके प्रायश्चितका विधान है। उपदीक्षी व्यखिको नखछेदनके दिनसे हादश दिन अभिषवण कर्ममें प्रकृति परिमित सोमरस प्राप्त पर्यन्त सानिपातिक करना चाहिये। यदि. नेदेठी होनेसे जलादि द्वारा उसे बड़ा काम पूर्ण कर अहिताग्नि न हो, तो यन्त्रकारी व्यक्तिको ही पग्निमें द्रोणकससको पूर्णता सम्पादन करना पड़ता है। कार्य करना पड़ता है। उसमें वैश्वानरनिर्वाप नामक सोम पीछे मिलने पर जो द्रव्य मिल सके, उसे हो प्रायश्चित्तका विधान है। १४य कण्डिका एक का पुनर्वार. यन्न करनेका विधि है। उसमें गोदान राजाके अधीन दो यजमान यदि पर्वत वा नदी प्रायश्चित्त करनेका नियम है। १२५ कडिका प्रभृतिक व्यवधानशून्य समान देशर्म यन्त्र करें, तो Yol. IV. 92
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