पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३६५

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इसमें सम- परस्पर देष कात्यायन उसमें सोमसंसद होता है। फिर यदि परस्पर विरोधी दो यजमान इसी प्रकार एक स्थानपर यत्रके कुद्दालको उत्तरदिक रखना चाहिये।) उक्त समस्तके ग्रहण और निधानका मन्त्रकथन है। लिये सोमका अभिषव करें, तो मिलित भावमें कार्य | कुम्भकारकट क भाण्डादि निर्माणको उपयोगी एवं करने के लिये उसकी संसब कहते हैं। उसमें समुदाय अति चिक्कण मृत्तिका ग्रहण करना पड़ती है। ऐसी कर्म सत्वर सम्पादन करना उचित है। देशकाल भिन्न वृत्तिका कृष्णमृगचर्मको उत्तरदिक् रखना चाहिये। हानसे, पर्वतादिका व्यवधान रहनेसे और परस्पर उसको दक्षिणदिक वल्मीकतोष्ट्र रखते हैं। अविरोधी हानसे वह संभव नहीं होता। इसी प्रकार चतुष्कोण भूभागको पूर्वदिक्में हार और सात वार भेदका कथन है। संसवविषयमें अपनी भांति मृत्यु भूसंस्कार कर उसके ऊपर वालुका पाच्छादनपूर्वक कामनाकारी होवादिक क कर्तव्य कर्मविशेषका उसमें पञ्च अरनि अर्थात् प्रायः पांच हाथ परिमित विधान है। यथा-होताके मृत्युकामनाकारी होता, मृगचर्म डाल उसके ऊपर उपकरणसमूह रख देना अध्वर्यु के मृत्युप्रार्थी अध्वर्यु और यजमानके मरणा चाहिये। उल्लेखन, नन्नहारा अभिषिश्वन पौर काझी यजमानको वही कर्म सम्पादन करना चाहिये। सन्तार द्वारा संसर्गविषयमे मन्त्रसमूहका कथन है। यह यज्ञ परस्पर देष रहनेसे ऐसे देशमें अनुष्ठित होता उसके अनन्तर अध्वयुका गवेधुक पौर छागदुग्ध पृथक 'जहां रथपर बैठ एक दिनमें जा सकें। भावसे रख वल्लोकचोष्टादिके साथ मृपिण्ड मिचाना न रहने अथवा उक्त नियमकी अपेक्षा देशका दूरत्व चाहिये। उसके पीछे महावीर कर्तव्य है। उसका पड़नेसे अनुष्ठान असम्भव है। पूर्वोत होता प्रभृतिके स्वरूप है। (यथा-परिमाणमें एक प्रादेश प्रर्यात् मध्य एक जनमात्र कर्मका अनुष्ठान करनेसे अथवा अर्ध हस्त और मध्यदेव उलूखचको भांति सङ्कुचित् एक जन मरनेसे व ख यज्ञमध्यवती अध्वर्यु प्रभृति रहता है। उपरिभागमें सोन अडचिपरिमित स्थानके पवशिष्ट कर्म सम्पादन करेंगे। उसमें अन्य वरणको अनन्तर हो यह सङ्कचित मेखता लगाना पड़ती है।) अपेक्षा करना नहीं पड़ती। सोमादि जल जानेसे महावीर निष्पन्न होनेसे "मखस्य शिवः" मन्त्र पाठ- प्रतिनिधि द्रव्य दारा कर्म समापन करना चाहिये। पूर्वक उसके स्पर्श का विधि है। किसीके मतमें इस पञ्च गोदान कर यह यज्ञ समापन करनेका विधि है। मन्त्र द्वारा उसका ग्रहण है। इसी प्रकार अपर दो हादश रात्रिके पूर्व यह दोष पानसे पुनर्वार यज्ञारम्भ महावीरका विधान है। अभिमर्शपके पीछे समुदायको और परिषको पच्च गोदान दक्षिणामात्र प्रायश्चित्त भूमिमें निहत करने का विधि है। करना चाहिये। इसी प्रकार मतान्तरका विधान भांति प्राकृतिविशिष्ट, रोहिण कपाच एवं वक्ष्यमाण है। ब्रह्मका ही विहित कर्ममें अधिकार रहने और पुरोडाशकपातकी भांति गोताकार दोहनपावय विशेप आदेश न मिलने से समुदाय प्रायश्चित्त होममें | भूमिमें स्थापनकर अवशिष्ट मृत्तिका प्रायश्चित्त के लिये निहत करना चाहिये। “मखाय ति" मन्त्र पाठ- बद्धका अधिकार है और ब्रह्मशून्य अग्निक्षेत्रादि कार्यम यजमानके ही अधिकारका विधि कहा है। पूर्वक गवेधुकसमूह चूणकर अखपुरोष द्वारा प्रदीप्त दून समस्त दक्षिणाम्निसे "प्रखस्व बसि” मन्त्र पाठपूर्वक इस २६श अध्यायमें ६ कण्डिका हैं। कण्डिकावोंमें प्रवग्यका उपयोगी महावीरसन्तरण मृत्तिकामें धूपदान करते हैं। उखाको भांति प्रदाहन आदिका विधि है। चतुष्कोण अवट बना कर्म प्रतिपादित है। (यथा-मृत्पिण्ड, वल्मीक- उसमें अपण अर्थात् पाकसाधन काठादि विश उसके लोट्र, शूकरकटंक उत्याटित मृत्तिका, पूतिका पोहे जपर तीन महावीर वक्रमावसे रखने पड़ेंगे। नामक नताविशेष और गवेक्षक नामक जलसब्रिहित उसके ऊपर पुनार इस काष्ठका पाच्छादन डाल महाहणजात शुक्लफलविशेष-समस्त द्रव्य सञ्चय- पूर्वक पूर्वदिक् वा उत्तरदिक् रख क्वणमगचर्म और दक्षिणाग्नि द्वारा जलाना चापिये। दग्ध होने पर फिर सक्के मुखको