काव्यायन पीछे ब्रह्म प्रतिको याजिक द्रव्यममूहके प्रदानका विधि है। महावीर मत सोनसे यथाकाल प्रायश्चित्त करनेका विधान है। दस प्रायश्चित्तका प्रकारादि है। लिप्त कर प्रतिप्रस्थाताको देते हैं। उसके पीछे छितीय रोहिणक होमका विधि है। मध्यम परिधिमें निहत पञ्च विककृत शकाल आहवनीयमें आहुति देना चाहिये। उपयमनीस्थ धर्मान्य अग्निहोत्रके विधानानुसार प्रवग्य के चरणका विधि है। उसमें पूर्णाहुति होमका आहुति दे समुदाय ऋत्विक् प्रति भक्षण करते है। प्रकार है। सम्भियमाण महावीर भग्न होने से उसके खरमै लच्छिष्ट धौत कर उपयमनीको निधान करना प्रायश्चित्तका नियम है। प्रवयं के अधिकारीका निर्देश पड़ता है। इसी समय उपथित पञ्च शकल है। हुतशेष ट्रव्य के भक्षणका विधि है। प्रवर्य- शहवनीयमें प्रचार किये जाते हैं। उसके पीछे धेनुको चरणके आद्यन्तमें शान्तिकाध्यायने पाठका विधि है। ण जल देनका विधि है। समुदाय पावसमूह इन दोनों अध्यायों के मध्य १म प्रध्याय द्वारपिधानः श्रासन्धा करनेका विधि है। खर, स्थ था, मयूख, पोछे और २य अध्याय आमन्याम पात्र निधानके पीछे. कृष्णाजिन, अधि, उपाय और आसन्दीक एक बार पढ़ना पड़ता है। प्रासादन और प्रोक्षणका विधि कथित है। म कात्यायनसूत्रमै उता समस्त विषय जाति विस्तृत कणिका उपसदके पीछे प्रवयं उत्सादनका प्रकार भाव वर्णित है। है। अवमथकी भांति अध्वयंकटक सामगानके लिये निम्नलिखित व्यक्तिने कात्यायनौतसूत्रका भाष्य. प्रस्तोताका प्रेषण है। अवभृथकी भांति देशगति बनाया है, पौर निधन है। सामगानके पीछे सकलके उत्सादन १ अनन्त, २ कर्क, ३ कल्याणोपाध्याय, ४ गाधर,. देशमें अर्थात् महावीरादि पानके त्यागदेशमें गमनका ५ गदाधर, ६ गर्ग, ७ पिळभूति, ८भ यज्ञ, महादेव, विधि है। इस स्थानमें या अग्निचितिशून्य होनेसे १० मिचाग्निहोत्री, ११ बीधर, १२ हरिहर । याचिक- सकलके उत्तर वैदिमें गमनका विधि है। किन्तु यज्ञ देवने श्रौतसूत्रपइति और पद्मनाभने क्षात्यायनसूत्रपति नामसे स्वतन्त्र पइति रचना की है। पग्निचितियुक्त रहनेसे परिष्यन्दमें जाना पड़ता है। ३ गोभिनके पुत्र कात्यायन। इन्होंने मुझसंग्रह Ta उत्सादन देश वा उत्तर वैदि परिषेक कर उत्तर और छन्दोपरिशिष्ट वा कर्मप्रदीप रचना किया है। किसी कार्यको कर्तव्यता है। प्रध्वयंको उत्तर वैदिमें प्रथम किसीके अनुमानमें श्रौतसूत्रकार कात्यायन और मसि- महावीर और सदिक्में अपर दो महावीर निधन प्रणेता कात्यायन उभय अभिन्न व्यक्ति थे। न्तिक करना चाहिये। वहौं उपशया अर्थात् महावीरादिको उभयकी रचनाप्रणाली देख वैसा वोध नहीं होता। निर्माणावशेष मृत्तिका स्थापन करना पड़ती है। हरिवंश में विश्वामित्रवंशीय कतिक पुत्र कात्यायनों .महावीरादिकी चारो ओर परीशासहय निधान करते का नाम मिलता है। फिर इसी विश्वामित्र वंश है। नौचे और वाद्य देशमै रोहिणी एवं इरणी
- "विवामिनस्य च सवा देवरावादयः भवाः ।
नामक स्नु कद्दय निधान करना चाहिये। रोहिणीकी विख्यातास्त्रिषु लोकेषु तेषां नामानि मे शृणु ॥ उत्तरदिक अग्नि तथा दक्षिणदिक : प्रासन्दी और देवयवाः कवियव यमान कान्वायनाः शताः। अधिको उत्तरदिक पवित्र अर्थात् कृष्णाजिन निर्मित - मालावत्यो दिरखाचो रणोनय रपनान्य अजन समूहमें निधान करते हैं। उसके पीछे परिधि, साइ तिगालवयं व सुवर्य वि विधुवाः । 'उपयमनी, रन्नु, मन्दान, वेद, पिन्वन, स्थ था, मयुख, मधुच्छन्दौ मधयं व देवनय ववाटिकः। कच्चपो चारितय व विशमिवस्य ते सुताः । रोहिण, कपाल, भृष्टि, नक, मुनकुट, खर, उच्छिष्ट तेषांखाखानिगीवाधि कोशिकानां महात्मनाम् । खर प्रति निधानका विधि है। दुग्ध द्वारा महा- पाथिको वववयव ध्यानमयालय व च। वोरादि सप्त पात्रके गर्तपुरणका विधि है। पढीके देवला यवयं व याचवावमा उसके पोखरा धोमवताचारवायमचुचुवाः। (रिश..). साथ सकसके चावाल मार्जनका विधि है।