पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कमलाकान्त विद्यालक्षा. कासके भवन पहुंचे। उन्होंने गातोर जानेके भाष्य किया। १८३७ ई.को वही अर्थ पौर भाष लिये बहुत पनुनय विनय किया, जिसपर कमला साधारणमें प्रचारित हुवा था। विद्दजन-समाजनें कान्तने एक पदावली गा कर मत फिरा दिया। बड़ी खलबली पड़ी। भारतेतिहासके तमसाच्छम अनन्तर इन्होंने इहसंसार छोड़ा था। प्रवादानु अध्यायपर नतन आलोक पड़ा था। किन्तु जिनके सार कमलाकान्तका शवदेह साधकको वृणशय्या हारा इतना काण्ड हुवा, उनको कोई फल न मिला। भेदकर भोगवतीक स्रोतवेगमें बह गया। फल सम्पादक प्रिन्सेप साइबने पाया था। अमेरिका कमलाकान्त विद्यालधार-बङ्गालके एक सुप्रसिद्ध और युरोपके विद्यानुरागो प्रिन्सेप साहबको धन्य पण्डित । पानकल अंगरेज प्राच्य विषय में जान लामा धन्य कहने लगे। किन्तु प्रिन्सेप साहब पतन न कर और क्षोदित-लिपि, प्राचीन हस्ताक्षर प्रभृति पढ़ थे। वह अपनी प्रबन्धावलीमें कमलाकान्तको हो जो तत्व ढूंढ़ने लगे, उसके मूल पण्डित कमलाकान्त समोझेदक और टोकाकार लिख गये हैं। विद्यालयार हो रहे । १८०० ई०के मध्यभाग यह बरेली में मिली एक कुटिल लिपिकी समालोचनाके एशियाटिक सोसाइटीके पण्डितपदपर प्रतिष्ठित थे। समय इन्होंने मुग्ध हो बताया-ऐसा सुन्दर भाव और फिर उसी समय प्रिन्सेप साहब उता सभा सम्पादक भाषण हमने अन्य विसो लिपिमें बाजनक नहीं रहे। प्राचीन शिलालेख, तामफलक और हस्ताक्षर पाया। कमलाकान्सने ही प्रथम यह बात कही- प्रभृतिका मर्मोद्धार करना ही पण्डित कमलाकान्तका इसी लिपिसे वडोय वर्णमाला निकम्मी या मिली है। कार्य था। दिनी पौर पत्ताहाबादमें दो लोहस्तम्भोंपर यह दूसरा भी विशेष कार्य कर पुरातत्त्व को पाखो- प्राचीन अप्रचलित भाषासे कोई विषय अहित रहा। चनामें समधिक उवति देखा गये हैं। दिलो और उसको अनुलिपि पूर्व ही प्रचारित हो चुकी थी। किन्तु इलाहाबादको पूर्वोक्त लिपिके अक्षरोंसे संख्यावाच- सर विलियम जोन्स, कोलबुक और होरेस-हेमेन कत्ल प्रतिपादित होता था। नामा संस्मत अन्य देख विल्सन प्रकृति संस्कृतवित् साहब उसका अर्थ लगा कमलाकान्तने ठहराया:-कौन पंधर किस संख्याक या उस नातिके अक्षरोंका विन्दु विसर्ग भी बता न लिये पाया है। इस स्थसपर उसके दो एक उदा- सके। शेषको कमलाकान्त उल लिपिका मौहार हरण देते हैं-"समयुगातियतुरेको विसर्गथ।" (कातन्त्र ) करनेपर दृढ़प्रतिज्ञ हुये और प्रक्षर ठहरानेकी चेष्टा ४ (चार)का प्रस्त्रीके स्तनयुग पौर विसर्ग की चलाने लगे। फिर देहली, सांची और गिरनार श्रावति रखता है। कातन्त्र व्याकरणमें कमलाकान्तने प्रभृति स्थानों की क्षोदितशिलालेखका सादृश्य पा उक्त सूत्र देख निर्णय किया-विसर्ग () वर्ण (8) तथा वङ्गाक्षरी एवं देवनागरावरीसे मिला इन्होंने चारके अहंका बोधक माना गया है। इसी प्रकार एक-एक अक्षर बता दिया। सर्वांन ' और 'न पिङ्गलकृत प्राकृत व्याकरणशा सूव ६ (छह) संख्या- स्थिर हुवा था। उक्त दोनों पक्षर पक्के पड़नेसे काम को बतानवाला ठहरा है। कितना ही सीधा पड़ गया। तत्पर '१', 'f' और इससे पूर्व और पर प्रिन्सेप.साहप कमलाकान्त- 'आदिको कमलाकान्तने खिर किया था। मथः पण्डितके साहाय्यपर नाना विषय में उसकार्य हुये । पन्यान्य वर्णी और शब्दोंको निकाल इन्होंने वह स्वयं विशेषरूपसे संस्कृत भाषाके अमित न रहे। दोनो लिपिका प्राचीन पाखौ भाषामें क्षोदित पण्डित कमलाकान्त ही उनके चक्षु बन गये। हम होना ठहराया। प्राचीन पाली वर्णमालाके उदा. अच्छी तरह समझते-कमलाकान्त यथोलिपस न वनका मूल वशीय पण्डित कमलाकान्त विद्या थे। कारण विन्दु मात्र भी यथोलिप्सा रहते यह लहर ही थे। निज छत पनेक कार्यों में एक न एक अपने नामपर पीछे इन्होंने छत दोनी लिपिका अर्थोहार और चलाते और लाभ एवं कोर्ति उठाये। फिर डाकर