कायस्थ ४८३ स्थिते समाधी सकलं या तं वदामि ते । सच्चौरामाहामा: यामः कमललोचमः। कन्नु नौवी गूढपिरा: पूर्णचन्द्रनिमामनः । स्खेखनीष दनौहती मसौभागमस युतः। निहित्य दर्शने तस्थौ ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः । उत्चमः सविचिवाबो ध्यानस्तिमितलोचमः। स्यका समाधि गाय तं ददर्श पितामह अधी, तनिरोधाध पुरुषश्चायत: स्थितम् । पप्रच्छ की भवानये सिष्ठले पुरुर्णत्तम । इति पृष्टोऽनवोत्रीण मार्य समक्षौरवम् । स्थानोंको छोड़ तीनों दोष दूसरी जगह भी रहते हैं। वायु, कफ, चौर पिच शब्द देखी। २ कर्मभोगके लिये योगियों द्वारा कल्पित कायसमूह। योगी कर्मत्यागके लिये कायव्य बनाते हैं। "नामिचक्र कायशु इचानम् ।" ( पातलस्व ) नाभिचक्रम संयम रखनेसे योगी कायव्यूह समझ सकते हैं। फिर 'सङ्कल्पादेव तच्छ्रुतेः' शाण्डिल्यसूत्रके अनुसार योगी बहुविध फल भोगने के लिये जो शरीर वनास, उससे चित्त, प्रत्येक इन्द्रिय और अङ्गकी कल्पना लगाते हैं। 'कायसम्पद ( सं. स्त्री० ) कायस्य सम्पद तत् । शरीरको सम्पत्ति, जिस्मकी दौलत । रूप, लावण्य, बल प्रौर सुगठन प्रभृतिको 'कायसम्पद' कहते हैं। कायसौख्य (सं० ली.) शरीरसुख, जिस्मका पाराम। कायस्थ (सं० पु० ) कायेषु सर्वभूतदेहेषु तिष्ठति, काय-स्या का १ अन्तर्यामी परमेखर। "कायस्थोऽपिन कायस्थः काययोऽपिन नायसे । कायस्थोऽपि म सुभानः कायम्योऽपि न षष्यते ।" (उत्तरगीता शरम) २ जातिमेद । भारतवर्षके प्रधान प्रधान स्थानों में जो कायस्थ वास करते हैं, उनमेंसे सामाजिक और विशुद्ध कायस्थ मात्र पपनको चित्रगुप्तके वंशधर वसलाते हैं। इनके सिवा और एक श्रेणोके सम्भान्त और अल्पसंख्यक कायस्थ हैं, जो चान्द्रसेनीय प्रभु कहलाते हैं। जिन क्षत्रिय वंशधरीने युत्ति त्याग कर उक्त प्रभु कायस्थ- को हत्ति ग्रहण की वा उनके साथ सम्बन्ध जोड़ा, वे भी 'प्रभु' कहलाते हैं। चित्रगुप्त देव ही कायस्थ जातिके, प्रादिपुरुष है। ऐसी दशामें सबसे पहिले चित्रगुप्तके विषयको ही पासोचना करनी चाहिये। चित्रगुप्तका परिचय। हस्तलिखित भविष्यपुराणमें लिखा है, "दशवर्ष महसाहि दशवर्ष गतानि च। स समाधि' समाधाय स्थिसोऽभूत कमलासने । पुरुष उवाच । उत्पनो विधिना नाथ त्वच्छरीरान संशयः । भामधैयं हि मे तात! वनुमईस्यतः परम् । यथोचितच यत्कार्य तत्व मामनुमामय । पुलक्षा उवाच । प्रस्थाकथं तती बझा पुरुष स्वशरीरजम् । महष्य प्रस्य वाचदमानन्दितमतिः पुनः स्थिरमामाय मेधावी ध्यानस्थस्थापि सुन्दर। अमीषाच। मच्छरोरात समुह सम्तमाल कायस्थ संतक । चित्रगुप्त ति नावा वै ख्यातो भुवि भविष्य मि । धर्माधर्मविवेकार्थ धर्मराजपुर सदा । स्थितिमवतु नै बत्म ! ममाला प्राप्य नियमाम् । शनवोचितो धम': पालगोय यथाविधि । प्रभा समस्त भी; पुव भुवि भारसमाहितः । सम दला वरं प्रातः वान्तरधीयत " (पापु० उत्तरखण्ड) ब्रह्माने जगत्को सृष्टि करने के बाद स्थिरचित्तसे इन्द्रियों को संयत कर ११०० वर्ष तपस्या की। उसी अवस्थामें ब्रह्माके शरीरसे श्यामवर्ण, पनसोचन, कम्बुग्रीव, गूढशिरा और परमसुन्दर एक पुरुष उत्पन्न हुवा। वह दावात-कलम ले कर ब्रह्माके सामने श्रा खड़ा हुआ। तब ब्रह्माने समाधि भर कर उसे नौसे ऊपर तक देख कर पूछा, तुम कौन हो ? और मेरे सामने क्यों खड़े हो ? उत्तरमें उस पुरुषने कहा, --" नाथ ! मैं आपके शरीरसे ही उत्पन्न हुई। ..पानकलक पे हुए भविष्यपुराण, चिवगुप्तकै विषयमै ऐसी कोई बात न देख कर कोई कोई इस विवरणकी प्रचित बतलासे परन्तु भारदीय महापुराणकै उपविभागलपमें भविषापुराणको यो विस्त स विषय- -सूची, उसमें कार्तिको ला दितीयाके व्रतकै प्रसंगमै चित्रगुप्तदेवको पूना और विस्त त विवरणका पाभास मिलता है। इसके सिवा कई स्थानों से ऐसौ इसलिखित पुस्तकें भी मिली। जिनमें भविषापुराणीय चिवगुपके प्रतका विवरया - पाया जाता है। सुप्रसिह "वाचस्पयामिधान" और "भन्दकन्पद्रुम" महाकोषम मी भविषापुरापके कथनमै उक्त धिवगुप्तको कथा उहतं है। पतएव जान पड़ता कि, पानकलकै कये हुए भविषा- पुरापसे बातचा निकाल दी गयौ.।।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/४८२
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