पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/४८७

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कायस्थ ऋषिकन्या शर्मिष्ठाका विवाह क्षत्रिय राजा ययातिके त्याग करने योग्य हैं। 'शब्दकल्पद्रुम में कही गई देवी- साथ कभी नहीं हो सकता था। शब्द कल्पगुममें वरको उक्ति भी काल्पनिक है, क्योंकि देवीवरके मून "प्राचारनिर्णयतन्त्र" और "प्रम्निपुराणीय जातिमाला" कुलग्रन्थमें कहीं भी ऐसे वचन नहीं हैं। उपरोक्छ से जो प्रमाण लिये गये हैं, वह आधुनिक रचना प्रमाणों की भांति "ईमपुराण" के वचन मी कायस्योंकि इसमें कुछ भी संदेह नहीं। तन्त्रसार, महासिद्धि विषयमें ठीक नहीं जंचते । शब्दरत्नाकर अभिधान- - सारस्वत, पागमतत्त्वविलास, वाराहीतन्त्र और रुद्रया- "कर नापने गाने पुमान् गद्रावियोः सर्वे । मलतन्त्र में मित्र भिन्न ५०। ६. तन्त्रोंका उल्लेख है। युद्दे कायस्यमेदेऽपि करमस्त्रियाम् ।" . परन्तु उपर्युक्त किसी भी तन्त्रमें "प्राचारनिर्णयतन्त्र" का इत्यादि प्रमाणमे करण कायस्थ और शूटू-वैमासे नाम तक नहीं पाया है। भारतके नाना स्थानों में उत्पन्न करण, सम्पूर्ण भिन्न प्रतीत होते हैं। सैकड़ा तन्त्र-ग्रन्थों का पता लगा है, परन्तु दूसरी जगह सान्धि-विग्रहिका कहीं "प्राचारनिर्णयतन्त्र की एक भी पोधो नहीं कायस्थ का अर्थ लेखक या राजाका लेखक है- मिली। सिर्फ शब्दकल्पद्रुमके सग्लयिता राजा राधा- इस बातको सब हो स्वीकार करते हैं। विष्णुस्मृति कान्त देवके पुस्तकालयमें ही एक प्रति मिलती है। और वृहत्परायरम तिमें रानसमाके लेखकको ही इस पुस्तक में ७० लोक हैं। इसकी लिपि देखनसे ही कायस्थ कहा है। उक्त स्म ति पोर शुक्रनीतिसे यह स्पष्ट मालूम हो जाता है कि, यह किसी प्राधुनिक स्पष्ट प्रतीत होता है कि, पहिले कायस्थ चोग हो लेखकको लिखी हुई है। यह पुस्तक किसी उद्देश्य- . हिन्दूराजानों के समयमें सेना-विभागका हिसाव रखने के .सिद्धिके लिये ही लिखी गई है -इस वातको केही निए, कर वसूल करनेके लिए और विचारालयके हृदयङ्गम कर सकेंगे, जो इस पुस्तक को देख चुके हैं। कागजात लिखनेके लिए राजलेखक रूपसे रखे पग्निपुराणीय जातिमाताके विषयमें भी ऐसा ही है। जाते थे। अर्थात् लिखनेका काम एक मात्र कायस्यों के कलकन्नेको एशियाटिक सोसाइटी और वम्बई प्रादि ही हाथ था। पहिले हिन्दू-राजसमामें लिखने के नाना-स्थानोंसे मूल अग्निपुराण प्रकाशित हुये हैं, पर काममें कायस्थोंके सिवा दूसरे नहीं रखे जाते थे। उनमेंसे किसी शब्दकल्पद्रुममें कही गई अग्निपुरा- इसी निंए कायस्थ या राजसमाके लेखक राज्यका गीय जातिमालाका एक भी लोक नहीं मिलता। साधनाङ्ग समझे जाते थे। मनुसंहिताके - लोकके. और की तो क्या, भारतसे जिसने हस्तलिखित ग्रन्थ प्राप्त भाष्यमें मेधातिथिने ऐसा लिखा है। "राजाराहारणासनान्येवकायस्थ-इसनिखिताब प्रमारी मदन्ति ।" इये हैं, उनको विवरण-पुस्तिकामें मो इस जाति. अर्थात्-राजदत्त ब्रमोत्तर भूमि पादिका शासन, मालाका उल्लेख नहीं। बङ्गालके बाहर जो चित्रगुप्तक जो एक कायस्वके हाथका लिखा दुपा है, वही वंश कायस्थ रहते हैं, उन्हें भी इस नातिमालाका प्रमाणित है। मिताचरामें लिखा है,- पता न था। बङ्गालमें सिर्फ वसु, घोष पादि उपाधि "सन्धिवियहकारी तु भवेशन देखकः । धारियोंका वास है और इसके उल्लेखसे यह जातिमाला स्वयं राज्ञा मनादिष्टः स लिखेट्राजशालनमा" किसी बङ्गालीकी बनाई हुई और प्राधुनिक ही प्रतीत (पाचाराध्याय, ३१९ शेक) होती है। इसलिये 'भाचारनिर्णय तन्त्र' की तरह यह नी बलि राजाका सन्धि-विग्रहकारी लेखकोगा,. जातिमालाभी किसी विशेष उद्देश्यसिदिके लिये हाम्नमें वरही रानाके पादेशानुसार राजयामन लिखेगा। बनाई गई है इसमें सन्देह नहीं। इसी तरह शब्द अपराकके यानवल्का निवन्धमें मी व्यासके वचन: कल्पद्रमोक्त कुलप्रदीप'के वचन भी प्राचीन-शास्त्र-सम्मत ऐसे उहत है- जहोनेके कारण आधुनिक है और वह किसी विशेष "रामात सयमादिष्ट-सम्धिविनायकः। इखसिषिके लिए सिखे गये हैं, इसलिए वह भी ताबपट्टे पट वापि प्रमिद्राममारम"