126 कायस्थ उत्पन्न हुवे-चाक, सुचारु, चित्राच, मतिमान. पाजकल युक्तपदेयके कायस्य प्रधानसं: १२ वीम चित्रचार, परुण और असीन्द्रिय। फिर मुदक्षिणाके विमा है- श्रीवास्तव्य वा ओशस्तव, २ भटनागर, गर्भसे भानु, विभानु, विश्वमान और वीर्यभानु चार ३ अकसेन, ४ अम्बष्ट वा पमष्ठ, ५ पैठान वा पहान, पुत्रने जन्म लिया। ब्रह्माने चित्रगुप्तके वंशको वधि ६ वाल्मीक, ७ माथुर, ८ सूर्यध्वन, ८ इन्चेह, होते देख एक दिन पानन्दसे कहा था-'हमने १०करण, १९ गौड़ और १२ निगम। सिवा इसके अपने वाहुसे मृत्युलोकके अधीम्बर रूपमें क्षत्रियों की नाव जिलेके नामसे 'उनाई एक पृथक पाखा है। सृष्टि की है। हमारी इच्छा है कि तुम्हारे पुत्र भी यौवासा वा श्रीवास्तव कायस्थ-अपनेको चित्रगुप्तके. क्षत्रियो। उस समय चित्रगुप्त बोल उठे- पुत्र भानुका बंधधर बताते हैं। उनके पूर्व- 'अधिकांश राना मरकगामी शंगे। इम नहीं चाहते | पुरुष काश्मीरके श्रीनगरमें राजस्व करते थे। उसोये कि हमारे पुर्वाक पदृष्टमें भी वही दुर्धटना पा पड़े। 'श्रीवास्तव्य' पाख्या हो गयो। उक्त कथा मी थीवास्तव हमारी प्रार्थना है कि पाप उनके लिये कोई दूसरी कहा करते हैं। फिर किसीके मतमें यौवक्र विष्णुके व्यवस्था कर दीजिये। अनि इंस कर उत्तर दिया- उपासकोंको श्रीवास्तव कहते हैं। किन्तु कोई कोई 'अच्छा, आपके पुत्र सिके बदले लेखनी धारण युरोपीय पुराविद अवध प्रदेशस्य गोंडा जिलेकी करेंगे। चार जन्म वह इसी यमलोकमें रहेंगे। श्रावस्ती नगरोसे श्रीवास्तव नामको उत्पत्ति बताता उसके पीछे इच्छा करनेसे वह देवलोक में धास कर है। किन्तु भेष दोनों मत कल्पनामूलक समम सकेंगे। अनन्तर चित्रगुप्तके सन्तान इहलोक पा पड़ते हैं। गये। उक्त बार लोगों में चार मथुरा गये और श्रीवास्तवोंमें दो भाखा है-एर और दूसर। 'माधुर' नाम गण्य हुवे। सुचारु गौड़में जा कर खर शाखा ही सत् वा श्रेष्ठ मानी जाती है। दूसर रहने लगे और उसीसे 'गौड़ कई गये। चित्र मह सम्मानमें बहुत छोटे हैं। एक प्रवाद -अयोध्या में नदीके कूल पर जा कर रहनेसे 'भहनागरिक' नामसे जाकर जी बसे, वही 'खर' वा श्रेष्ठ और जो अन्य गण्य दुवे। भानु 'श्रीवास' नामक स्थानमें ना कर खानमें जा कर रहे, वह दूसर हैं। फिर किसी रहे और 'श्रीवास्तव' नाससे ख्यात दुवे। हिमवान् । किसीके कथनानुसार पहले इस प्रकार दो याखाये देवी अम्बाको आराधना करनेमे 'अम्बष्ट', मतिमान् नथौं। सम्राट अकबरके ही समयसे उन दोनाको अपनी सही पथात् भार्याके साथ चलनेसे 'सखिसेन' दृष्टि हुयी है। उस समय एक व्यक्तिले प्रति घृणाके और विभानु 'सूरसेन देशमें जाकर रहने से 'सूर्यध्वज'* साध रानप्रदत्त उपहार त्याग किया था। उनका नाम कहे गये। यहां नरन्तोक विस्तार कर उन्होंने वर्ग-1 'अखोगे प्रधान धर्मपरायण हुवा। मांसपर्थ न लोककी गमन किया। करने की प्रखोरी नाम हो सकता है। यह समझ नहीं पड़ता कि ऐतिहासिकों की इलाहावादी और फतेहपुरी श्रीवास्तयों में निपो. 'दृष्टिमें उक्त उपाख्यानका विशेष मूस्य है। फिर भी सवान और और बुद्धि प्रदान नामक दो कुल देख चित्रगुप्तके पुत्रोंकी भांति जिन कई लोगांका नाम पड़ते हैं। युक्तप्रदेश में श्रीवास्तवोंकीकी संस्था अधिक लिखा गया है, परिमाचलस्थ कायस्थोंके मध्य कोई
- कारण युभमदेव माना स्थानोंसे जो सबसौन शिक्षानिमि
कोई श्रेणी पपनेको उक्त किसी न किसी व्यक्तिका पावित्रत यो है, उनमें श्रीकानन्य नाम को मिलता है। श्रीवझ' भएका वंशधर बसाती है। 'श्रावती' कमी यह शब्द निया की नहीं सकता। बसपारको राश • यहादेव कायस्यों का एक विवरण पहला-कामधेनु-भूत निकी इस बातका प्रभाव मिलता कि काश्मीरमें गाबाद यून कास्योंका यर ममा ताकि श्रीगाया मी ana'frana fazat Bi See Origin and States of the Kajasthao, published by Hargorinda Babays, xh, p. 13. ! **