- - कारकः अन्य कारकके प्रवर्तनकारीको कर्तृकारक, क्रिया होती. । अमिनिविश्य । पा 80, पमि और नी 'निष्पादनके विषय में प्रति निकटवर्ती कारणको करब, पूर्वक विश धातुके यागमें भी अधिकरणको कम ‘क्रियाके उहिष्ट- व्यापारविशिष्टको कम, कटकम | कहते हैं। किसी किसी स्थलमें व्यभिचार दर्शनसे • व्यतीत अयर क्रियाधारणशील कारक (क्रियाके GR विधि विकल माना गया है। यथा-"पाद पमिनिवेशः। सपावध्या वसः।" पा राम । उप, पनु, भाधार) को पधिशरण, प्रेरण पनुमति प्रभृति व्यापारविशिष्टको सम्प्रदान पर अवधि भावज्ञान अधि और अङ् पूर्वक वस धातुको कर्मसंज्ञा विशिष्टको अपादान कहते हैं। है। घटुहोरुपमष्टयोः कर्म। पा ! उपसर्गविशिष्ट . कारक छह प्रकारका है-कर्ता, कर्म, करण, क्रुध पौर ?ह धातुके प्रयोगमें जिसके प्रति क्रोध पाणिनिके सम्पदान, अपादान पार पधिकरण। पाता, वह कर्म कहासा है। मतमें बः कारकका लक्षण है, स्वतन्त्रः कर्ता । पा ११४५७ । कर्म तीन प्रकारका है-नित, विकार्य और पर्थात् क्रिया खातन्त्रको अवस्थापर विवक्षित कारक प्राप्य। कर्मकारक उब होनेसे प्रथमा और पनुा. कर्ता कहता है। उन्होनसे काम ग्रंथमा और कर्ममें द्वितीया विभक्ति लगती है। कनगि हिवीया। अनुल रहनेसे बतीया विमति लगती है। उसको पा ।।९। अनुक्त कर्ममें द्वितीया विभक्ति भाती है। छोड़ अन्यन्त्र प्रथमा विभक्ति पाती है। यथा उसको छोड़ अन्यान्य स्थलोंमें भी द्वितीया विभक्ति प्राविपदिकार्यविपरिमापवचनमाने प्रथमा। पा | प्राति-पड़ती है। यथा-अन्तरातरेप यु । पा ३६४ । - अन्तरा पदिक पर्थमात्र, लिङ्कमान, परिमाणमात्र और और पन्तरण शब्दके योगमें हितीया विभक्ति लगती संख्यामावमें प्रथमा विमति होती है। दूसरे-सम्बोधने वर्मप्रवचनोययुठे दिवोया। पाशा :कर्म और च। पा ०४७ । अन्यको निस शब्दसे अपने सम्मुखीन प्रवचनीय संचाविशिष्ट शब्दके : योगमें द्वितीया बनया जाता, वह सम्बोधन कहाता है। उनमें भी विधि लगाते हैं। प्रवचनीय देखो। बालापनौरव्यनसंयोगे। प्रथमा विभक्ति ही लगती है। का करण्यौल दीया। पारा३५। कारवाचक एवं प्रध्ववाचक शब्दके साथ पा सक्षम पनुन कट कारक और करणकारकमें गुण, क्रिया और द्रव्यमा निरन्तर सम्बन्ध समझ वृतीया विभक्तिपात है। पड़नेसे भी द्वितीया पाती है। कर्मका लक्षण है,-कभिवतम कर्म। या 1881 करणका लक्षण है-साधववम करपम् । पारा । अर्थात कर्ता क्रियांसे जिस ईप्सितंतम पदार्थको लेना क्रियासिदिके विषय में जो प्रधान उपकारक होता, चाहता, उसीका नाम कम है। बयापुर पानीभितम् । सोको करण जाहै। दिवः कर्म च ! पा ११४३१ दिव 'पा 8.1 फिर क्रिया हारामित पदार्थकी भांति धातुके साधक कारकको कर्म और करण- उभय संद्रा कोई प्रनीप्सित पदार्थ निष्पन्न होते भी उसकी कमसंज्ञा होती है। कई करपयोच तौया । पा राश१८। अनुव कट.. पड़ती है। प्रकृषितं च । पा! अपादानादि द्वारा कारक .और करणमें ढतीया विमति स्वगती है। अविवचित कारक कर्मसंनक होता है। गतिबुद्धिप्रत्य उसके छोड़ अन्य स्थलों में भी बतीया विभक्ति पाती वसानार्थ शब्दकमांकमवापामपिका सयौ। पा | गति, यथा,-पपबमें वतीया। पा ससा फलप्राप्तिको बुद्धि और प्रत्यवसान अर्थ में अणिजन्त कालक्षा कर्ता सम्भावनासे काल और अध्व वाचक शब्दकाः निरन्तर पिजन्तकालमें कर्म कहता है। कोरन्यवरथाम्। सम्बन्ध होने पर तीया विभक्ति. लगती है। मायुछे. पा ६५५५। और च धातुके अपिजन्तकालका कर्ता प्रधाने । . पा ॥१६:सहार्य शब्दके योगसे अप्रधान पिनन्तकालमें विकल्पसे , कर्ममंचक होता है। पदार्थमें हतीया विभक्ति होती है। सहाथ शब्दकी भषियोङ स्यामा वर्म। .पा. : अधि पूर्वक भी, स्या विवचा रहते भी बतीया दिमखि लगाते हैं। सह, और पास भातुके योग, अधिकरणको क्रमसंधा. सावं, साध :ौर:सम सहाय मद। येनारियाः ।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५१३
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