५४४ कापास मात्रमें प्रतिइन्दिना रहती है। विलायतमें मजदूरी कामें इसके लिए सजिन नामक एक प्रकारको कल ज्यादा और भारतमें वाम पड़ती है। फिर भारतसे रूई मी बनी है । फिर किसी वस्त्र में भरने के लिए उन्नत विलायत ले जाने और वहां कपड़ा बनाकर भारत रूई पिशारीमि साफ की जाती है। उसका नाम पहुचानेमें भी खर्च लगता है। भारतमे वस्त्र वनेको | धनुही घोर कमान भी है । उसमें तांतका एक कल खड़ी करनेसे वह व्यय निवारित हो सकता है। खिंचारोदा चढा रहता है । सामने कई रख कमा- इसी विवेचनासे इङ्गालेण्ड के लोगों ने यहां पा कन्न नको बायें हाथ से पकड़ते हैं। फिर रोदा रुई पर खोलने की व्यवस्था की है। इससे समझ पड़ा कि जमाया और उसपर एक छोटे मोटे डण्टे से इनसोण्डसे कल लाने और उसके चलान में पन्तत: प्राघात लगाया जाता है। इससे रूई खूब साफ घनालेण्डकी कलसे भारतको कलमें बहुत अधिक व्यय होती है। लगा था, किन्तु उसके पोछे दूसरी सब सुविधा रहौं। पहले हिन्दुस्थानमें रूई हाथ साफ की जाती १८५१ को एक समिति बनी थो। १८५४ ई० को थी। यह काम प्रायः स्त्रियां ही करती थी। कई प्रथमत: बम्बई में कपड़ेकी कल खुली। उस समयसे साफ होनेपर चरखेमे सूत कातते थे। पहले हिन्दु . भंगरेज व्यवसायो क्रमशः कनों की संख्या बढ़ा रहे हैं। स्थानमें घर घर चरखा चलता था। इस्य रमणी आजकल बम्बई, इन्दौर, जवनपुर, होंगनघाट, नागपूर गृहस्थालीका कर्म निवटा अवकाशके समय चरखे पा औरङ्गाबाद, हैदराबाद, कुन्नवर्ग, कानपुर, भागरा, बैठ सूत काततो थों । सकुवै पा सूतको भांडी कलकत्ता, मन्द्रास, बेल्लारी, कालिकट. कोयखतूर या नी जमी रहती थी । वस्त्रययन तन्तुवाय तूंतकूड़ी, त्रिनवल्ली, त्रिवांझुर, मङ्गलोर चोर पुदि लोगोंका कार्य था । वह गृहस्थोंके घरसे प्रांडो रोमें कपड़े की कलें चलती हैं। उनमें कहीं तूत खरीद ले जाते थे। तन्तुवायकी स्त्रियां चावल का मांड काता और कहीं कपडा वुना जाता है। प्रतिवर्ष लगा सूतको दृढ़ बनाती थों। उसका नाम चीर है। लाखों मन रुई खर्च होती है। हजारों पुरुष, स्त्रियों, तन्तुवाय उस सूतको तांतपर चढ़ा वस्त्रवचन करते वान्तक और वालिकायें कामपर नियुक्त हैं। थे। प्राज भी वैसा ही होता है । पहले देशके कार्यास वृक्षसे कई संग्रह कर परिष्कार की सब मोगांका वस्त्र ऐसे ही बनता था। हिन्दु. जाती है। रुई में बीच बीच बहुतसे वोज लगे स्थानमें स्थान स्थानपर सुन्दर सुन्दर कार्यास-वस्त्र रहते हैं। उन्हें निकाल डालना यावश्यक है। बनते थे, जिन्हें विदेगीय वणिक् समादरसे मोल ले इसीसे किसी समतल प्रस्तर खण्ड वा समतल धनोपार्जन करते थे। ठाकै सपेिक्षा उत्कृष्ट वस्त्र स्थान पर रूई फैला देते हैं। उसपर एक हाथ लंबा प्रस्तुत होता था। देसा सूक्ष्म वस्त्र कहीं देख पड़ता लौपदण्ड रखा जाता है। फिर उसपर खड़े हो न था । नीचे उनको कुछ. नाम शिखते हैं,- कर पैरसे 'माइते हैं। उससे वीज नीचे गिरने पर '१ मनरत-पावरोयान्, तनजे.व, सामल- अपर साफ रुई रह जाती है। राई साफ करने की सर्वापेक्षा उत्कष्ट है । शबनम, खासा, मीना, सरकार चरखी भी होती है। उसमें लोहे या लकड़ीके शाली, गङ्गाजल और तेरिन्दम द्वितीय श्रेपोमें :परि. दो गोल डण्डे बराबर बराबर लगे रहते हैं। फिर गणित है। बाफता,-यथा हम्माम, डिसटी, मान, नइलख.स. पौर घुमानेसे वह दोनों संलग्न भावमें घूमने लगते हैं। दाइने हाथमे मुठिया पकड़ चरखी चलायो और २ हरियो-डोराकाट, मसलिन (बांरिका वस्त्र) वायें हाथ से उन्हीं मिले हुए डण्डौमें रूई लगायो राजकोट. डाकान, पादपाहदार, कुन्दीदार, कागजो, जाती है। ऐसा करनेसे नीचे की ओर बीज गिरते और भाग साफ रूईके गाले :पड़ते है। अमेरि ३ चारखाना-शेट मसलिन छह प्रकारकी थी। गुसूबन्द ढसीय श्रेणीमें है। - कत्तावात।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५४३
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