५४६ कापास उसपर एक प्रकारका कारकार्य रहता विड बुलवुड मनाते हैं। उसके अनेक नाम है-कारचोवी, कलावस्तू, पचीको पांखक पादर्श पर बुना जाता है, इसे "बुझवुच्च चिकन, कामदानी और नामदानी। जामदानो- चश्म करते हैं। पाजकर इस घिल्पका लोपो करेला, तोड़ेदार, बूटीदार, और तिरछा पादि कई प्रकारको होती है। पब तो केवल खेस, लंगी एवं सूसी नामक बारीक फूलदार रुईने नागाविध वस्त्र कचकत्तेके निकट वस्त्र पौर दुस्ती, गाढा तथा गनी नामक मोटा दनाये जाते हैं। उनकी विक्री हबके बाजार में अधिक कपड़ा ही देख पड़ता है । राजपूतानेमें भी शेषोक्त होती है। चार प्रकारका वस्त्र बनता है। ग्वालियरके चाटेरी रुईके बस्नपर तरह तरहका रंग चढ़ाया जाता नामक स्थानमें उत्कृष्ट मसलिन तैयार होता है। है। उसपर छाप भी कई प्रकारको लगती है। इन्दौरका मसलिम भी बहुत खगव नहीं रहता। रुईका कपड़ा पहले घंगरेज कानीकटम ले जात देवास राज्यके पन्तर्गत सारंगपुरमें धोती, साड़ी और थे। इसीसे उन्होंने उसको कैलिको (Calico ) नाममे पगड़ी प्रस्तुत होती है। अभिहित किया है। रंग देनेको केन्निको-डाउन मध्यप्रदेशके मागपुर, भण्डारा और चांदा जिले में ( Calicordying ) और हाप मार छोट बनाने को पाज भी सूक्षा सूत कतता पौर उससे वस्त्र बनता है। कैलिको-प्रिण्टिङ्ग (Calico-printing) कहते हैं। किसो १८१७१ को चांदा प्रदेशमें एक प्रदर्शनी हुयो । उस किसी कपड़ेपर सुनहली छाप पड़ती है । छाप लगाने से मैं हाथका बना सत देखाया गया था। वह सत इतना तरह तरहको छौंट बनती है। छोटके कपड़ेसे रजाई, बारीक रहा कि सिर्फ प्राध सेर सूत ५८ कोस लंघा तकियेका गोलाफ, तीमक, पलंगणेश, जानिम, निकला । मागपुर में रूका पेंच खुल जानसे उक्त शामियाना वगैरह तैयार होते हैं। रंगदार कपड़ेमें शिल्पका बात गौरव घट गया सास बहुत अच्छी रहती है। फिर आपदार कपड़े में । किन्तु पेंचका सून आज भी उसना उत्कष्ट नहीं होता। उससे कुछ कुछ चुनरोका प्रचार अधिक है। इस देशमै रजक ही रूई का कपड़ा धोते हैं। गौरव हुवा है। देशी वस्त्र अधिक दिन टिकता है। विलायती पंचके प्रभावमे देशस्य कार्यास-शिल्प इसीसे वहांक गरीव लोग विलायतीसे देशी वस्त्रका क्रमशः लुप्त हो रहा है। सम्भावना ऐलौ होने नगो पादर अधिक करते हैं। जोशनाबादमें देशी वस्त्रका है-जो शिल्प है. वह भी कान पाकर न रहेगा । पन्ने व्यवसाय बढ़ रहा है। कार्पासवस्त्र देशके प्रयोजनमें जुग उद्दत्त होनेपर दाक्षिणात्यके हैदराबाद पश्चन्त पर रायचूर जिले में विदेश मेजा जाता था। पद व समय नही रहा। खाकी रंगका मोटा कपड़ा पौर नन्देर जिलेमें वारीक पाजकन्त शिल्यो अन्नहीन हो गये हैं। मससिन तैयार होता है। मन्द्राज प्रान्तके अरनी मामक भावप्रकाशके मतमें कार्यामवृक्ष-लघु, ईषत् उप- स्थानका बारीक मसलिम प्रति उत्कष्ट रहता है। वीर्य, मधुररस और वायुनाशक है। उसका पत्र- बम्बई प्रदेश में वित्तायती वस्त्रका . विशेष प्रादर वायुनाशक, रक्तकारक और मूववर्धक होता है। बढ़ते भी गांव गांवमें रुईका देशी मोटा कपड़ा बनता वीज-वन्य-टुग्यवर्धक, शक्रवर्धक, निग्ध, कफकारक है। सामान्य लोग मोटी साड़ी और पगड़ीका विशेष और गुरु है। (वि.) कर्पासख विकार अवयवावा, कर्पासी-पए। पनेक खानमें रूई के सूतमें रेशम या अन मिक्षा विश्वादिमोऽ। पा शाखा २ कार्यसनात, कपासो, तरह तरहका कपड़ा बनाते हैं। कहीं कहीं रुईके काशका बना हुवा। इसका अंक न पर्याय-फाउं यापड़े में रेशमी शिनारा लगाया जाता है। फिर काहों और दादर है। रंगमी बेस बूटे, जरीके बेलबूटे और सूरका काम "प बसमकासमाविक मुटु चात्रिन'" (भारत स५०४) 1 पादरं करते।..
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/५४५
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